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________________ ७२ विसुद्धिमग्ग च चेतसो पवत्तिसब्भावं सन्धाय वुत्ता। सीलट्ठो पन तेसं पुब्बे पकासितो येवा ति । एवं पहानसीलादिवसेन पञ्चविधं ॥ एतावता च किं सीलं ? केनट्ठेन सीलं ? कानस्स लक्खण-रस-पच्चुपट्ठानपदट्ठानानि ? किमानिसंसं सीलं ? कतिविधं चेतं सीलं ? - ति इमेसं पञ्हानं विस्सज्जनं निट्ठितं ॥ (६) सीलस्स सङ्किलेसो ४५. यं पन वृत्तं " को चस्स सङ्किलेसो ? किं वोदानं ?" ति । तत्र वदामखण्डादिभावो सीलस्स सङ्किलेसो, अखण्डादिभावो वोदानं । सो पन खण्डादिभावो लाभयसादिहेतुकेन भेदेन च, सत्तविधमेथुनसंयोगेन च सङ्गहितो। तथा हि यस्स सत्तसु आपत्तिक्खन्धेसु आदिम्ह वा अन्ते वा सिक्खापदं भिन्नं होति, तस्स सीलं परियन्ते छिन्नसाटको विय खण्डं नाम होति । यस्स पन वेमज्झे भिन्नं, तस्स मज्झे छिद्दसाटको विय छिद्दं नाम होति । यस्स परिपाटिया द्वे तीणि भिन्नानि, तस्स पिट्ठिया वा कुच्छिया वा उट्ठितेन विसभागवण्णेन काळरत्तादीनं अञ्ञतरसरीरवण्णा गावो विय सबलं नाम होति । यस्स अन्तरन्तरा भिन्नानि, तस्स अन्तरन्तरा विसभागवण्णबिन्दुविचित्रा गावी विय कम्मासं नाम होति । एव ताव लाभादिहेतुकेन भेदेन खण्डादिभावो होति । ४६. एवं सत्तविधमेथुनसंयोगवसेन । वुत्तं हि भगवता - सम्पृक्त चेतना एवं उस उस का व्यतिक्रम न करने वाले के अव्यतिक्रम के रूप में चित्त की प्रवृत्ति की सत्ता का उल्लेख करते हैं। उनके पहले, शीलवान् का अर्थ बताया ही जा चुका है। यों, प्रहाणशील आदि भेद से भी शील पाँच प्रकार का होता है ।। इतने व्याख्यान से, शील क्या है? किस अर्थ में शील है? इस शील के लक्षण, रस, प्रत्युपस्थान एवं पदस्थान क्या है? शील का माहात्म्य क्या है? शील के प्रकार (भेद) कितने हैं? - इन सभी (पाँच) प्रश्नों का उचित, विस्तृत एवं शास्त्रानुकूल उत्तर दे दिया गया । (६) शील का संक्लेश ४५. उनमें अब एक प्रश्न अनुत्तरित रह गया- इस शील का संक्लेश एवं व्यवदान (शुद्धि) क्या है ? इसके विषय में हमारा कहना है शील का खण्डित हो जाना शील का संक्लेश है और खण्डित न हो पाना (अखण्ड रहना) शील का व्यवदान (शुद्धि) है। (१) लाभ-यश आदि के कारण हुए खण्डन में और (२) सात प्रकार के मैथुन - संयोग में इस खण्डन भाव का संग्रह विद्वानों द्वारा किया गया है। जिसका शिक्षापद सात आपत्तिस्कन्धों में से प्रारम्भ या अन्त में खण्डित हो जाता है, उसका शील, किनारे पर फटे कपड़े की भाँति, खण्ड (विभक्त हो जाता है। और जिसका शिक्षापद मध्य में खण्डित हो जाता है उसका शील मध्य में छिद्रित हुए कपड़े की भाँति छिद्र (छिद्रित ) कहा जाता है। जिसका शिक्षापद परिपाटी (क्रम) से दो या तीन बार खण्डित हो चुका है उसके शील को पीठ या पेट पर काली चितकबरी चित्तियों वाली गौ की तरह शबल (चितकबरा) कहते हैं। जिसका शिक्षापद रुक-रुक कर खण्डित होता रहता है उसके शील को इधर उधर चित्तियों के कारण चित्र विचित्र गौ के समान कल्माष (अधिक काला रंग मिले हुए या चित्तकबरे रंग वाला) कहते हैं। इस प्रकार लाभ आदि के कारण खण्डित होने से 'खण्डित होना' आदि कहलाता है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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