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१. सीलनिद्देस
समुदयस्स, पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय आदानस्स, खयानुपस्सनाय घनसञ्जय, वयानुपस्सनाय आयूहनस्स, विपरिणामानुपस्सनाय धुवसञ्ञाय, अनिमित्तानुपस्सनाय निमित्तस्स, अप्पणिहितानुपस्सनाय पणिधिया, सुञ्ञतानुपस्सनाय अभिनिवेसस्स, अधिपञधम्मविपस्सनाय सारादानाभिनिवेसस्स, यथाभूतञाणदस्सनेन सम्मोहाभिनिवेसस्स, आदीनवानुपस्सनाय आलयाभिनिवेसस्स, पटिसङ्घानुपस्सनाय अप्पटिसङ्घाय, विवट्टानुपस्सन सञ्ञोगाभिनिवेसस्स, सोतापत्तिमग्गगेन दिट्ठेकट्ठानं किलेसानं, सकदागामिमग्गेन ओळारिकानं किलेसानं, अनागमिमग्गेन अणुसहगतानं किलेसानं, अरहत्तमग्गेन सब्बकिलेसानं पहानं सीलं, वेरमणी....चेतना.... संवरो.... अवीतिक्कमो सीलं ।
एवरूपानि सीलानि चित्तस्स अविप्पटिसाराय संवत्तन्ति, पामोज्जाय, पीतिया, पस्सद्धिया, सोमनस्साय, आसेवनाय, भावनाय, बहुलीकम्माय, अलङ्काराय, परिक्खाराय, परिवाराय, पारिपूरिया, एकन्तनिब्बिदाय, विरागाय, निरोधाय उपसमाय, अभिज्ञाय, सम्बोधाय, निब्बानाय संवत्तन्ती" (खु०५-५१ ) ति ।
४४. एत्थ च पहानं ति कोचि धम्मो नाम नत्थि अञ्ञत्र वृत्तप्पकारानं पाणातिपातादीनं अनुप्पादमत्ततो। यस्मा पन तं तं पहानं तस्स तस्स कुसलधम्मस्स पतिट्ठानट्ठेन उपधारणं होति, विकम्पाभावकरणेन च समाधानं, तस्मा पुब्बे वुत्तेनेव (१३ पिट्ठे) उपधारणसमाधानसङ्घातेन सीलनद्वेन सीलं ति वुत्तं । इतरे चत्तारो धम्मा ततो ततो वेरमणिवसेन, तस्स तस्स संवरवसेन, तदुभयसम्पयुत्तचेतनावसेन, तं तं अवीतिक्कमन्तस्स अवीतिक्कमनवसेन
आत्मसंज्ञा, निर्वेदानुपश्यना से नन्दी (आसक्ति), वैराग्यानुपश्यना से राग, निरोधानुपश्यना से समुदय (जन्म), प्रतिनिसर्गानुपश्यना से आदान, क्षयानुपश्यना से घन (एकत्व) संज्ञा, व्यय (नाश) की अनुपश्यना से आयूहन (राशिकरण), विपरिणाम (विनाश) की अनुपश्यना से ध्रुवसंज्ञा, अनिमित्तानुपश्यना से निमित्त, अप्रणिहितानुपश्यना से प्रणिधि (निश्चय), शून्यतानुपश्यना से अभिनिवेश (धर्मात्मदृष्टि), अधिप्रज्ञधर्मपश्यना से सार ग्रहण के अभिनिवेश, यथाभूतज्ञानदर्शन से सम्मोहाभिनिवेश, आदीनव (दोष) की अनुपश्यना से आलय ( तृष्णा - ) अभिनिवेश, प्रतिसङ्ख्या - (प्रज्ञा-) अनुपश्यना से आलय(तृष्णा) अभिनिवेश, प्रतिसङ्ख्या - (प्रज्ञा - ) अनुपश्यना से अप्रतिसङ्ख्या, विवर्त (निर्वाण) अनुपश्यना से संयोजनाभिनिवेश, स्रोतआपत्ति मार्ग से दृष्टिजन्य क्लेशों, सकृदागामी मार्ग से स्थूल क्लेशों, अनागामी मार्ग से सूक्ष्म क्लेशों, अर्हत्त्व मार्गों से सभी स्थूल सूक्ष्म क्लेशों का प्रहाण प्रहाणशील कहलाता है। विरमणि चेतना संवर...अव्यतिक्रमशील कहलाता है।
"ऐसे शील चित्त को अपश्चात्ताप (अविप्रतिसार) प्रामोद्य, प्रीति, प्रश्रब्धि (शान्ति), सौमनस्य, आसेवन, भावना, बहुलीकरण (आधिक्य) अलङ्कार (शोभा), परिष्कार, परिवार, परिपूर्ति, ऐकान्तिक वैराग्य, ग्लानि (उपेक्षा) निरोध, उपशय, अभिज्ञा, सम्बोधि एवं निर्वाण के निकट पहुँचाने वाले होते
हैं।"
४४. यहाँ ‘प्रहाण ́ उक्त प्रकार के प्राणातिपात आदि के अनुत्पाद के अतिरिक्त कोई अन्य धर्म नहीं है; क्योंकि विभिन्न (व्यक्तिश: एक-एक) प्रहाण उस उस कुशल धर्म के आधार (प्रतिष्ठान ) के अर्थ में 'धारण करने वाला' होता है एवं कम्पनाभाव (स्थिरता) के कारण 'समाधान' है; अतः पूर्वोक्त (पृष्ठ १३) प्रकार से ही उपधारण- समाधानरूपी शीलन अर्थ में शील कहा गया है।
अन्य विरमणि आदि चार धर्म उस उस के विरमण व उस-उस के संवर में, उन दोनों से