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विसुद्धिमग्ग उन्होंने उस मत में महास्थविर रेवत से प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। प्रव्रजित होकर उन्होंने त्रिपिटक का गम्भीर अध्ययन किया। वस्तुतः प्रव्रजित होने से पूर्व बुद्धघोष एक ब्राह्मण-विद्यार्थी (ब्राह्मणमाणव) मात्र थे। बाद में भिक्षुसङ्घ ने त्रिपिटक में उनके गम्भीर घोष को बुद्ध के समान जानकर 'बुद्धघोष' की पदवी दी। उन्होंने, जिस विहार में इनकी प्रव्रज्या हुई थी, वहीं जाणोदय (ज्ञानोदय) नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके बाद वहीं इन्होंने धम्मसङ्गणि (अभिधम्मपिटक का प्रथम ग्रन्थ) पर 'अट्ठसालिनी' नामक अट्ठकथा भी लिखी। और अन्त में त्रिपिटक पर एक संक्षिप्त अट्ठकथा लिखने का भी उपक्रम किया, जिसे देखकर उनके गुरु महास्थविर रेवत ने उन्हें परामर्श दिया- "लङ्का से यहां भारत में केवल मूल पालि-त्रिपटिक ही लाया गया है, परन्तु अट्ठकथाएँ यहाँ उपलब्ध नहीं है। लङ्काद्वीप में महास्थविर महेन्द्र द्वारा संगृहीत 'प्रामाणिक अट्ठकथाएँ सिंहली भाषा में सुरक्षित हैं। तुम वहाँ जाकर उनका श्रवण करो, और बाद में मागधी भाषा में उनका रूपान्तर करो, ताकि वे सर्वजनसाधारण के लिये सुलभ होकर हितावह हो सकें।" इस प्रकार गुरु की आज्ञा से आचार्य बुद्धघोष लङ्काधिपति महानाम के शासनकाल में लङ्का गये।
वहाँ अनुराधपुर के महाविहार में 'महापधान' नामक भवन में रहकर उन्होंने सङ्घपाल नामक स्थविर से सिंहली अट्ठकथाओं और स्थविरवाद की परम्परा को सुना। जब बुद्धघोष को श्रवण, मनन, निदिध्यासन करते करते यह निश्चय हो गया कि तथागत (बुद्ध) का यही ठीक अभिप्राय है, तब उन्होंने महाविहार के भिक्षुसङ्घ से प्रार्थना की-"मैं अट्ठकथाओं का मागधी भाषा में रूपान्तर (अनुवाद) करना चाहता हूँ, मुझे आप लोग अपनी पुस्तकें देखने की अनुमति दें।" इसपर उन्होंने उनकी परीक्षा के लिये पहले उन्हें त्रिपिटक (संयुक्तनिकाय) की दो गाथाएँ व्याख्या करने के लिये दी। बुद्धघोष ने उन दो गाथाओं की व्याख्या के रूप में विसुद्धिमग्ग' की रचना की। इस विद्वत्तापूर्ण रचना को देखकर भिक्षु इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने बुद्धघोप को साक्षात् भगवान् मैत्रेय बुद्ध (भावी बुद्ध) ही मान लिया और उन्हें अपनी सब पुस्तकें देखने की आज्ञा दे दी। अनुराधपुर के उस ग्रन्थकार-विहार में बैठकर आचार्य बुद्धघोप ने सिंहली अट्ठकथाओं का मागधी-भाषान्तर पूर्ण किया। इसके बाद वे अपनी जन्मभूमि भारत लौट आये।
काल-बुद्धघोष लङ्काधिपति महानाम के समय में लङ्का गये थे। इस राजा महानाम का शासनकाल चौथी शताब्दी के अन्तिम भाग में या पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक भाग में माना जाता है। अतः निश्चित है कि बुद्धघोष ने अपने ग्रन्थों की रचना इसी काल में की।
बर्मी भिक्षु-परम्परा भी यह मानती है कि आचार्य बुद्धघोष पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक भाग में लङ्का गये थे।
.क्योंकि उस समय उनकी अवस्था युवा तो रही ही होगी, अतः उनका जीवनकाल निश्चय ही चौथी-पाँचवीं शताब्दी कहा जा सकता है।
- जन्मस्थान-'चूळवंस' के उपर्युक्त अंश में आचार्य बुद्धघोष का जन्मस्थल बौद्धगया (या बोधिगया) के समीप ब्राह्मण कुल में बताया गया है। परन्तु प्रसिद्ध विद्वान् श्री धर्मानन्द कोशाम्बी जी, बर्मी परम्परा के अनुसार, बुद्धघोष को दक्षिण भारत का निवासी मानते हैं। और वे.विसुद्धिमग्म के उपसंहार में लिखे इस वाक्य से "बुद्धघोषो ति.गरूहि गहितनामधेय्येन थेरेन मोरण्डखेटकवत्तब्बेन" आचार्य बुद्धघोष की जन्मभूमि मोरण्ड नामक खेटक (-खेड़ा, छोट ग्राम) को मानते हैं। संक्षेप में, "बुद्धघोष ने, क्योंकि अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण