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विसुद्धिमग्ग जैसे-सुत्तपिटक पर महाअट्ठकथा थी, विनयपिटक पर कुरुन्दी थी और अभिधम्मपिटक की अट्ठकथा का नाम था महापच्चरी। ये प्राचीन सिंहली अट्ठकथाएँ बारहवीं शताब्दी तक उपलब्ध थीं। आज इनका कोई अंश सुरक्षित नहीं है।
पालि साहित्य के भारतीय अट्ठकथाकार-भारतीय अट्ठकथाकारों में तीन नाम प्रसिद्ध है-बुद्धदत्त, बुद्धघोष तथा धम्मपाल। इनमें बुद्धदत्त तथा बुद्धघोष दोनों समकालिक थे-यह 'बुद्धघोसुप्पत्ति', 'सासनवंस' आदि ग्रन्थों के प्रमाण से स्पष्ट सिद्ध है। ये दोनों 'सिंहली अट्ठकथाओं के आधार पर त्रिपिटक की प्रामाणिक अट्ठकथाएँ लिखी जाय '-इस एक ही उद्देश्य से श्रीलङ्का भी पहुंचे थे। यह बात 'बुद्धघोसुप्पत्ति' तथा 'विनयविनिच्छय' ग्रन्थों में समुद्र में नाव पर हुए बुद्धदत्त-बुद्धघोष संवाद से स्पष्ट है । यद्यपि बुद्धदत्त अवस्था में वृद्ध थे, तथापि अट्ठकथा-लेखन का कार्य उन्होंने तब तक स्थगित रखा, जब तक आचार्य बुद्धघोष श्रीलङ्का से, अपने लक्ष्य में सफल होकर, वापस नहीं आ गये।
आचार्य बुद्धदत्त-उत्तरविनिच्छय, विनयविनिच्छय नाम से विनयपिटक की अट्ठकथा, अभिधम्मावतार नाम से अभिधम्मपिटक की अट्ठकथा तथा रूपारूपविभाग और मधुरत्थविलासिनी नाम से बुद्धवंस की अट्ठकथा लिखने वाले आचार्य बुद्धदत्त चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे।
आचार्य धम्मपाल-ये भी दाक्षिणात्य थे। इनका जन्म तमिळ प्रदेश के काञ्चीपुर में हुआ था। इनकी रचनायें ये हैं
(१) परमत्थदीपनी-यह खुदकनिकाय के उदान, इतिवृत्तक, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा एवं चरियापिटक ग्रन्थों की अट्ठकथा है। इन ग्रन्थों पर आचार्य बुद्धघोष ने अट्ठकथाएँ नहीं लिखीं।
(२) नेत्तिप्पकरणअट्ठकथा-यह नेत्तिप्पकरण की अट्ठकथा है। (३) नेत्तित्थकथाय टीका-उपर्युक्त नेत्तिप्पकरण की अट्ठकथा की टीका। (४) परमत्थमञ्जूसा-विसुद्धिमग्ग की प्रसिद्ध अट्ठकथा।
(५)लीनत्थप्पकासिनी-दीघनिकायादि चार निकायों पर बुद्धघोष की अट्ठकथा पर टीका।
(६) जातकट्ठकथा की टीका-यह भी लीनत्थप्पकासिनी नाम से प्रसिद्ध है। (७) बुद्धदत्त कृत मधुरत्थविलासिनी की टीका। आचार्य धम्मपाल की इन सातों अट्ठकथाओं में परमत्थमजूसा सबसे अधिक प्रसिद्ध है।
इन्होंने बुद्धदत तथा बुद्धघोष द्वारा रचित ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी हैं, अत: यह स्पष्ट है कि ये उन दोनों से बाद के थे। पालि-साहित्य के युगविधायक आचार्य बुद्धघोष
विसुद्धिमग्ग के रचयिता आचार्य बुद्धघोष की विश्व के प्रसिद्ध दार्शनिकों, विशेषतः बौद्ध दार्शनिकों तथा ग्रन्थकारों, की पंक्ति में प्रथम गणना की जाती है। उन्होंने अपना समग्र जीवन पालिसाहित्य की श्रीवृद्धि में लगा दिया। उनकी लेखनी के सतत प्रयास से भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट त्रिपिटक तथा पालिसाहित्य के सिद्धान्त लुप्त होने से बच गये। सभी इतिहासकार मानते हैं कि यदि आचार्य बुद्धघोष ने सम्पूर्ण त्रिपिटक पर अपनी गेवषणापूर्ण अट्ठकथाएँ न लिखी होती तो आज त्रिपिटक वाङ्मय लुप्त होता या न होता, पर उसको इतनी सरलता से