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बौद्धधर्म के विकासात्मक इतिहास के लिये सर्वाधिक है। पिटकान्तर्गत होने पर भी इसके रचयिता तिस्स मोग्गलिपुत्त हैं, जो तीसरी सङ्गीति के अध्यक्ष थे। इसमें क्रमशः बौद्धधर्म में जो मतभेद हुए, उनका भी संग्रह बाद तक होता रहा है। मतान्तरों का पूर्वपक्षरूप में समर्थन करके फिर उनका खण्डन किया गया है। आत्मा है या नहीं?'-आदि प्रश्न उठा कर बौद्ध मन्तव्यों की स्थापना की गयी है।
(६) यमक-इसमें प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दो प्रकार से दिया गया है। और कथावत्थु तक के ग्रन्थों से जिन शङ्काओं का समाधान नहीं हुआ, उनका विवरण इसमें दिया गया है।
(७) पट्ठान-इसे 'महापकरण' भी कहते हैं। इसमें नाम और रूप के २४ प्रकार के कार्यकारणभाव-सम्बन्ध की विस्तृत चर्चा है। .... पिटकेतर ग्रन्थ
(१) पिटकेतर पालिग्रन्थों में मिलिन्दपज्जो ग्रन्थ (मिलिन्दप्रश्न) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। समस्त पालि वाङ्मय में शैली की दृष्टि से यह अनुपम है। आचार्य नागसेन के साथ ग्रीकसम्राट् मिनाण्डर (ई० पू० प्रथम शताब्दी) के संवाद की योजना होने से इस ग्रन्थ का नाम सार्थक है। इस ग्रन्थ की प्राचीनता और प्रामाणिकता इसी से सिद्ध होती है कि आचार्य बुद्धधोष ने, पिटक से बाह्य होने पर भी, इस ग्रन्थ की त्रिपिटक के समान प्रामाणिकता मानी है और इसके उद्धरण अपने ग्रन्थों में दिये हैं।
- इस ग्रन्थ में बौद्धदर्शन के जटिल प्रश्नों को, जैसे-अनात्मवाद, क्षणभङ्गवाद के साथसाथ कर्म, पुनर्जन्म, और निर्वाण आदि को, सरल उपमाएं देकर, तार्किक दृष्टि से सुलझाने का प्रयत्न किया गया है।
(२) मिलिन्दपह के समान ही नेत्तिप्पकरण भी प्राचीन ग्रन्थ है। जो कि महाकच्चान की कृति माना जाता है।
(३)इसी कोटि का एक अन्य प्रकरण-ग्रन्थ पेटकोपदेस भी है। यह भी महाकच्चान की कृति है। अनुपिटक या अट्ठकथा साहित्य
त्रिपिटक तथा पिटकेतर साहित्य के बाद पालिसाहित्य में अट्ठकथा साहित्य का स्थान महत्त्वपूर्ण है। अट्ठकथा अर्थकथा अर्थात् व्याख्या। पूर्व काल में जैसे ब्राह्मण-साहित्य में सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखने की परिपाटी थी, वैसे ही पालिसाहित्य में अट्ठकथा नाम से व्याख्याएं लिखने की परिपाटी चली। ये अट्ठकथाएँ अर्थ की व्याख्या के साथ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी स्पष्टतः विवृत करती हुई नाम-ग्रन्थों की अपेक्षा अपने आप में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गयीं। संस्कृत भाष्यों में अर्थ की व्याख्या पर ही बल दिया जाता है, अनेक सिद्धान्तों या विचारधाराओं के विवरण वहाँ आते हैं, किन्तु वे 'इत्येके' 'इत्यपरे' कह कर छोड़ देते हैं। वहाँ केवल सिद्धान्त का ही अर्थ-विवेचन अधिक हुआ है। कौन सा सिद्धान्त कब उत्पन्न हुआ, अथवा वह किस का था?-आदि की खोज नहीं की गयी। पालि-अट्ठकथाओं में ऐसी बात नहीं है। जैसे 'कथावत्थु' की अट्ठकथा को ही लीजिये, वहाँ निराकृत २१६ सिद्धान्तों में से कौन किस का, किस सम्प्रदाय का सिद्धान्त था, कब उत्पन्न हुआ? आदि का पूर्ण विवरण मिलता है। अस्तु।
प्राचीन सिंहली अट्ठकथाएँ-बुद्धघोष की अट्ठकथाओं के साक्ष्य के आधार पर हम जानते हैं कि सिंहल में सम्पूर्ण त्रिपिटक पर सिंहली भाषा में लिखी हुई अट्ठकथाएं उपलब्ध थीं।