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विषयिणी उनकी गम्भीरगवेषणा और लोकोत्तर प्रतिभा चमकार के लिये ही अाभारी है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में तत्त्वार्थसूत्रान्तार्गत सूत्रों की रचना जिनर आगम-पाठों के आधार पर की गई है उन सभी अागम-पाठों का उपयोगी अंश उन२ सूत्रों के नीचे उद्धृत कर दिया गया है। कहीं २ पर तो तत्त्वार्थ के मूल सूत्र और आगे के मूलपाठ मं अक्षरशः समानता देखने में आती है । केवल भाषा के उच्चारणमात्र में ही अन्तर है तथा शब्दशः और भावश साम्य तो प्राय: है ही। इससे वाचकउमास्वातिजी की उक्त रचना का मूल जैनागमों के साथ कितना गहरा सम्बन्ध है इस बात के निर्णय के लिये किसी प्रमाणान्तर के ढूढने की श्रावश्यकता नहीं रहती। मुनिजी के इस समन्वय रूप संकलन को देखकर मेरी तो यह दृढ़ धारणा हा गई है कि तत्वार्थसूत्रों की आधारशिला निस्सन्देह प्राचीन श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध जैनागम ही है ।
मेरे विचार में तत्वाथ का यह अागमसमन्वयसाम्प्रदायिक