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## Conquering the Four Kṣayās and Indriyas: A Description **Chapter Four, Light of Yoga, Verses 23-25** **Verse 23:** * **Content:** This verse summarizes the conquest of the four Kṣayās (poisons): anger, pride, deceit, and greed. It states that anger is conquered by patience, pride by humility, deceit by simplicity, and greed by non-attachment (santosha). * **Explanation:** While both conquering the Kṣayās and the Indriyas (senses) are considered causes of liberation, conquering the Kṣayās is considered more important, with conquering the Indriyas being a prerequisite. **Verse 24:** * **Content:** This verse emphasizes the importance of conquering the Indriyas for achieving victory over the Kṣayās. It states that one cannot conquer the Kṣayās without first conquering the Indriyas. * **Explanation:** The verse uses the analogy of the cold of winter (Hemant) and fire. Just as the cold of winter cannot be overcome without fire, the Kṣayās cannot be conquered without conquering the Indriyas. **Verse 25:** * **Content:** This verse warns about the dangers of uncontrolled Indriyas. It states that uncontrolled Indriyas, like wild horses, can drag a person to the forest of hell (Naraka). * **Explanation:** The verse highlights the importance of controlling the Indriyas to avoid falling into the clutches of the Kṣayās and their consequences. **Summary:** These verses emphasize the importance of conquering both the Kṣayās and the Indriyas for achieving liberation. Conquering the Indriyas is essential for conquering the Kṣayās, and both are crucial for attaining liberation.
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________________ चारों कषायों पर विजय एवं इंद्रिय विजय वर्णन योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक २३ से २५ | निःस्पृहता अपना लेता है। जिसके जीवन में धन की तृष्णा खत्म हो गयी है, उसके सामने संपदाएँ हाथ जोड़े खड़ी रहती है। अंगुली से कान को बंदकर लेने पर कान में शब्दों के अद्वैत में वृद्धि हो जाती है; जो शब्द कान से दूर था, वह अपने आप कान में गूंजने लगता है। संतोष प्राप्त होने पर प्रत्येक वस्तु से वैराग्य हो जाता है। दोनों आंखें मूंद लेने | पर निःसंदेह सारा चराचर विश्व भी ढक जायगा । जिसने केवल एक संतोष गुण को हासिल नहीं किया। उसके केवल इंद्रियों के दमन करने से और सिर्फ काया को कष्ट देने से क्या लाभ? संतोष से निश्चय ही मुक्तिलक्ष्मी के मुख का दर्शन | होता है। जो शरीरधारी इस सांसारिक जिंदगी में रहते हुए भी लोभ से दूर रहता है, वह यहीं मुक्तिसुख का अनुभव करता है। क्या मुक्ति के सिर पर कोई सींग लगे होते हैं ? राग-द्वेष से मिश्रित अथवा विषयजनित सुख किस काम का ? क्या संतोष से उत्पन्न सुख मोक्षसुख से कम है? दूसरों को विश्वास दिलाने वाले शास्त्र के सुभाषितों के कोरे उच्चारण से कौन-सा सुख मिल जायेगा? आंखें बंद करके जरा संतोष के आस्वाद से होने वाले सुख का मन में विचार करो ! | यदि तुम यह स्वीकार करते हो कि 'कारण के अनुरूप कार्य होता है; तो संतोषजनित आनंद से मोक्षानंद की प्रतीति | करो । यह ठीक है कि तुम कर्मों को निर्मूल करने के लिए तीव्र तप करते हो; किन्तु वह तप भी संतोषविहीन हुआ तो | उसे निष्फल समझना । सुखार्थी मनुष्य केवल खेती, नौकरी, पशुपालन या कोई व्यापार करके कौन - सा सुख प्राप्त कर | सकता है? क्या संतोषामृत का पान करने से आत्मनिवृत्ति रूपी सुख का परम लाभ प्राप्त नहीं कर सकता ? अवश्य कर | सकता है। घास के बिछौने पर सोने वाले संतोषी को जो सुख मिल सकता है, वह पलंग पर या गद्देतकियों पर सोने वालों को कैसे नसीब हो सकता है? असंतोषी धनिक भी अपने स्वामी के सामने तिनके के समान है; जबकि संतोषी के सामने वह स्वामी भी तिनके के समान है; चक्रवर्ती और इंद्र का वैभव परिश्रम से मिलता है लेकिन अंत में तो वह भी नाशवान है, जबकि संतोष से मिलने वाला सुख बिना ही परिश्रम से प्राप्त होता है और वह शाश्वत भी रहता है ।। २२ ।। इस प्रकार लोभ का सारा प्रतिपक्ष रूप परमसुख - साम्राज्यस्वरूप संतोष में जानना चाहिए। इसलिए लोभाग्नि से | फैलते हुए परिताप को शांत करने के लिए संतोषामृतरस पीकर आत्मगृह में रति करो। इसी बात को समुच्चय रूप में | एक श्लोक में कहते हैं अर्थ : | | ३४९ । क्षान्त्या क्रोधो मृदुत्वेन, मानो मायाऽऽर्जवेन च । लोभश्चानीहया जेयाः, कषायाः इति सङ्ग्रहः ||२३|| क्रोध को क्षमा से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से और लोभ को निःस्पृहता = संतोष से जीते। इस प्रकार चारों कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहिए; यह समुच्चय रूप में निचोड़ है। यद्यपि कषायजय और इंद्रियजय दोनों को समान रूप से मोक्ष का कारण बताया है, फिर भी एक अपेक्षा से कषायजय मुख्य है और इंद्रियजय उसका कारण है ।। २३ ।। व्याख्या :- इसी बात को स्पष्ट करते हैं ।३५०। विनेन्द्रियजयं नैव कषायान् जेतुमीश्वरः । हन्यते हैमनं जाड्यं न विना ज्वलितानलम् ॥२४॥ :- इंद्रियों को जीते बिना कोई भी साधक कषायों को जीतने में समर्थ नहीं हो सकता। हेमंतऋतु का भयंकर शीत प्रज्वलित अग्नि के बिना मिट नहीं सकता ||२४|| अर्थ भावार्थ :- इंद्रियविजय को कषायविजय का हेतु (कारण) बताया गया है। यद्यपि कषायजय और इंद्रियजय दोनों एक ही समय में होते हैं; फिर भी उनमें प्रदीप और प्रकाश के समान कार्यकारण भाव होता है। इंद्रियविजय कारण है | और कषायविजय कार्य है। हेमंतऋतु की ठंड की जड़ता के समान कषाय है और जलती हुई आग के समान इंद्रियविजय | है। जिसने इंद्रियां नहीं जीती, समझ लो, उसने कषायों को नहीं जीता। इंद्रियविजय के बिना केवल कषायविजय का | पुरुषार्थ आगे चलकर अपाय (आपत्ति) का कारण बनता है ।। २४ ।। इसे ही आगामी श्लोकों में बता रहे है ।३५१। अदान्तैरिन्द्रियहयैश्चलैरपथगामिभिः । आकृष्य नरकारण्ये, जन्तुः सपदि नीयते ॥ २५ ॥ अर्थ इंद्रिय रूपी घोड़ों को काबू में न करने पर वे चंचल और उन्मार्गगामी बनकर प्राणी को जबरन खींचकर शीघ्र नरक रूपी अरण्य में ले जाते हैं ।। २५ ।। 340 :
SR No.002418
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherLehar Kundan Group
Publication Year
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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