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Anarthadanda-viramana-vrata ke 5 aticharon par vivechana
1. Visavaidya-vanikya: The sale of poisonous substances like snakes, scorpions, weapons like swords, ploughs, hooks, axes, and also arsenic, which cause harm to living beings, is called visavaidya-vanikya (poison trade).
2. Yantra-pidana-karma: Activities like extracting oil from sesame, sugarcane, castor using machines, operating water-wheels, crushing oil seeds in oil mills, etc. involve the killing of numerous tiny living beings. Hence, the Shravaka should renounce such yantra-pidana-karmas.
3. Nirlanchana-karma: Mutilating the limbs or organs of animals like piercing the nose of bullocks, branding cows and horses, castrating them, scarring the backs of camels, cutting the ears, neck-cords of cows, etc. is called nirlanchana-karma, which should be avoided.
4. Asati-poshana: Maintaining and nurturing unethical beings like parrots, cats, dogs, chickens, peacocks, etc. for the sake of wealth, and living by prostitution, is called asati-poshana, which is to be renounced.
5. Dava-dana and Sarah-shoshana: Burning grass and vegetation out of habit or with the intention of merit, and drying up lakes, rivers, ponds, etc. causing harm to the water-dwelling organisms, are called dava-dana and sarah-shoshana respectively, which the Shravaka should avoid.
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अनर्थदंडविरमणव्रत के ५ अतिचारों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १०९ से ११३ ।२८०। विषास्त्रहलयन्त्रायोहरितालादिवस्तुनः । विक्रयोजीवितघ्नस्य, विषवाणिज्यमुच्यते ॥१०९।। अर्थ :- शृंगिक, सोमल आदि विष, तलवार आदि शस्त्र, हल, रेहट, अंकुश, कुल्हाड़ी वर्तमान में पिस्तोल,
बंदूक आदि तथा हरताल आदि वस्तुओं के विक्रय से जीवों का घात होता है। इसे विष-वाणिज्य कहते
हैं ।।१०९।। अब यंत्रपीडनकर्म के संबंध में कहते हैं।२८१। तिलेक्षु-सर्षपैरण्डजलयन्त्रादिपीडनम् । दलतैलस्य कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता ॥११०॥ अर्थ :- घाणी में पीलकर तेल निकालना, कोल्हू में पीलकर इक्षु-रस निकालना, सरसों, एरंड आदि का तेल यंत्र
से निकालना, जलयंत्र-रेहट चलाना, तिलों को दलकर तेल निकालना और बेचना, ये सब यंत्रपीड़नकर्म हैं। इन यंत्रों द्वारा पीलने में तिल आदि में रहे हुए अनेक त्रसजीवों का वध होता है। इसलिए इस यंत्रपीड़नकर्म का श्रावक को त्याग करना चाहिए। मील, ट्रेक्टर से खेती, प्रेस आदि सब यंत्र कर्म है।
लौकिक शास्त्रों में भी कहा है कि चक्रयंत्र चलाने से दस कसाईघरों के जितना पाप लगता है ॥११०।। अब निलांच्छन कर्म के बारे में कहते हैं।२८२। नासावेधोऽङ्कनं मुष्कच्छेदनं पृष्टगालनम् । कर्ण-कम्बल-विच्छेदो, निर्लाञ्छनमुदीरितम्।।१११।। | अर्थ :- जीव के अंगों या अवयवों का छेदन करने का धंधा करना, उस कर्म से अपनी आजीविका चलाना;
निलांछन कर्म कहलाता है। उसके भेद बताते हैं-बैल-भैंस का नाक बींधना, गाय-घोड़े के निशान लगाना, उसके अंडकोष काटना, ऊंट की पीठ गालना, गाय आदि के कान, गलकंबल आदि काट डालना, इसके ऐसा करने से प्रकट रूप में जीवों को पीड़ा होती है, अतः विवेकीजन इसका त्याग
करे।।११।। अब असतीपोषण के संबंध में कहते हैं।२८३। सारिकाशुकमार्जारश्व-कुर्कुट-कलापिनाम् । पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः ॥११२।। अर्थ :- असती अर्थात् दुष्टाचार वाले, तोता, मैना, बिल्ली, कुत्ता, मुर्गा, मोर आदि तिर्यंच पशु-पक्षियों का
पोषण (पालन) करना तथा धनप्राप्ति के लिए व्यभिचार के द्वारा दास-दासी से आजीविका चलाना
असतीपोषण है। यह पाप का हेतु है। अतः इसका त्याग करना चाहिए ।।११२।। अब दवदान और सरःशोष रूप कर्मादान एक श्लोक में कहते हैं।२८४। व्यसनात् पुण्यबुद्ध्या वा दवदानं भवेद् द्विधा । सरःशोषः सरःसिन्धु-ह्रदादेरम्बुसम्प्लवः।।११३।। अर्थ :- दवदान दो प्रकार से होता है-आदत (अज्ञानता) से अथवा पुण्यबुद्धि से तथा सरोवर, नदी, हृद या
समुद्र आदि में से पानी निकालकर सूखाना सरःशोष है ।।११३।। व्याख्या :- घास आदि को जलाने के लिए आग लगाना, दवदान कहलाता है। वह दो प्रकार से हो तो व्यसन (आदत) से होता है-फल की अपेक्षा बिना. जैसे भील आदि लोग बिना ही प्रयोजन के (आदतन) आग लगा देते हैं, दूसरे कोई किसान पुण्यबद्धि से करता है। अतः मरने के समय मेरे कल्याण के लिए तमको इतना धर्मदीपोत्सव करना है, इस दृष्टि से खेत में आग लगा देना अथवा घास जलाने से नया घास होगा तो गाय चरेगी, या घास की संपत्ति में वृद्धि होगी; इस कारण आग लगाना दवदान है। ऐसे स्थान पर आग लगाने से करोड़ों जीव मर जाते हैं। तथा सरोवर, नदी ह्रद आदि जलाशयों में जो पानी होता है, उसे किसान अनाज पकाने के लिए क्यारी या नहर से खेत में ले जाता है। नहीं खोदा हुआ सरोवर और खोदा हुआ 'तालाब, कहलाता है। जलाशयों में पानी सूखा देने से जल के अंदर रहे हुए त्रसजीव और छह-जीवनिकाय का वध होता है। इस तरह सरोवर सुखाने से दोष लगता है। इस तरह पंद्रह कर्मादानों के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। इसी तरह और भी अनेक सावद्यकर्म हैं; जिसकी गिनती नहीं हो सकती। इस प्रकार सातवें व्रत के कुल बीस अतिचार कहे हैं-दूसरे भी पांच अतिचार कहे हैं। जो अतिचार | जिस व्रत के परिणाम को कलुषित करने वाला है, उसे उसी व्रत का अतिचार समझना। दूसरे भी पापकर्म है, उन्हें भी
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