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Vishavaniijya and Yantra Pidana Karma
Yogashastra, Trutiya Prakasha, Shloka 106-108:
1. Earning a livelihood by engaging in destructive activities towards the earth element, such as digging ponds, wells, etc., breaking stones, etc., is called Sphotajivika (explosive livelihood). (105)
2. Procuring and selling the body parts (teeth, hair, nails, bones, skin, etc.) of living beings from their natural habitats for the purpose of trade is called Dantavaniijya (trade in body parts). (106)
3. The trade of harmful substances like lac, indigo, dhatakyadi (a tree used for making liquor), and tankana (borax) is called Lakshavaniijya (trade in harmful substances), as it leads to the destruction of life. (107)
4. The trade of commodities like ghee, fat, honey, and alcoholic drinks, as well as the trade of bipeds (humans) and quadrupeds (animals), is called Rasavaniijya (trade in edibles) and Keshavaniijya (trade in living beings) respectively. All these trades involve harm to life and are therefore to be avoided. (108)
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विषवाणिज्य और यंत्र पीडन कर्म
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १०६ से १०८ अर्थ :- तालाब, कुएँ आदि खोदने, पत्थर, फोड़ने इत्यादि पृथ्वीकाय के घातक कर्मों से जीविका चलाना,
स्फोटक-जीविका है ।।१०५।। व्याख्या :- सरोवर, कुएँ, बावड़ी आदि के लिए जमीन खोदना, हलादि से खेत वगैरह की भूमि उखाड़ना, खान खोदकर पत्थर निकालना, उन्हें घड़ना इत्यादि कर्मों से पृथ्वीकाय का आरंभ उपमर्दन होता है। ऐसे कार्यों से आजीविका चलाना, स्फोटजीविका है ।।१०५।।
अब दंतवाणिज्य के विषय में कहते हैं।२७७। दन्तकेशनखास्थित्वग्रोम्णो ग्रहणमाकरे । त्रसाङ्गस्य वाणिज्यार्थं, दन्तवाणिज्यमुच्यते ॥१०६।। अर्थ :- दांत, केश, नख, हड्डी, चमड़ा, रोम इत्यादि जीवों के अंगों को उनके उत्पत्ति-स्थानों पर जाकर व्यवसाय
के लिए ग्रहण करना और बेचना दंत-वाणिज्य कहलाता है ।।१०६।। व्याख्या :- हाथी के दांत, उपलक्षण से त्रसजीवों के अंग भी उनके उत्पत्ति-स्थानों पर से खरीदना; चमरी आदि गाय के केश, उल्लू आदि के नख, शंख आदि की हड्डी, बाघ आदि का चमड़ा, हंस आदि के रोम; इनके उत्पादकों को पहले से मूल्य आदि देकर स्वीकार करना या उनके उत्पत्तिस्थानों पर जाकर उक्त त्रस-जीवों के अवयवों को व्यापार के लिए खरीदना, दांत आदि लेने के लिए भील आदि को पहले से मूल्य देना दंतवाणिज्य है। इसमें दांत आदि के निमित्त से हाथी आदि जीवों का वध किया जाता है। श्लोक में 'आकर' शब्द है। इसलिए अनाकर में या उनके उत्पत्तिस्थान के अलावा किसी स्थान पर इन्हें ग्रहण करने या बेचने में दोष नहीं कहा गया है। अतः उत्पत्तिस्थान में ग्रहण करने से दंतवाणिज्य कहलाता है। उसमें अतिचार लगता है ।।१०६ ।।
__ अब लाक्षावाणिज्य के संबंध में कहते हैं।।२७८ालाक्षा-मनः शिला-नीली-धातकी-टङ्कणादिनः । विक्रयः पापसदनं, लाक्षावाणिज्यमुच्यते ॥१०७।।। अर्थ :- लाख, मेनसिल, नील, धातकीवृक्ष, टंकणखार आदि पापकारी वस्तुओं का व्यापार करना,
लाक्षावाणिज्य कहलाता है ।।१०७।। व्याख्या :- लाख का व्यापार करना, उपलक्षण से उसके समान दूसरे मेनसिल, नील, धातकीवृक्ष (जिसकी छाल, फल और फूल शराब बनाने में काम आते हैं); इन सबका व्यापार करना लाक्षावाणिज्य है। ये सारे व्यापार पाप के कारणभूत होने से त्याज्य है। टंकणखार, मेनसिल आदि दूसरे जीवों का नाश करते हैं। नील जीवों के संहार के बिना बन नहीं सकती। धातकीवृक्ष मद्य बनाने का कारण होने से पाप का घर है। अतः इसका व्यापार भी पाप का घर होने से त्याज्य है। इस प्रकार के व्यापार को लाक्षावाणिज्य कहा जाता है ।।१०७।।
अब एक ही श्लोक में रसवाणिज्य और केशवाणिज्य दोनों का स्वरूप बताते हैं।२७९। नवनीत-वसा-क्षौद्र-मद्यप्रभृतिविक्रयः । द्विपाच्चतुष्पाद्विक्रयो वाणिज्यं रसकेशयोः ॥१०८।। अर्थ :- मक्खन, चर्बी, शहद, मदिरा आदि का व्यापार रसवाणिज्य और दो पैर वाले और चार पैर वाले जीवों |
का व्यापार केशवाणिज्य कहलाता है ।।१०८॥ व्याख्या :- नवनीत, चर्बी, शहद, शराब आदि का व्यापार करना रसवाणिज्य है और दो पैर वाले मनुष्य-दासदासी व चार पैर वाले गाय, भेड़, बकरी आदि पशुओं का व्यापार करना केश-वाणिज्य है। इनका जीव-सहित व्यापार करना केशवाणिज्य है और जीव-रहित जीव के अंग-हड्डी, दांत आदि का व्यापार करना दंतवाणिज्य है, यह अंतर समझना चाहिए। रस और केश शब्द में अनुक्रम से संबंध होता है। मक्खन में संमूर्च्छिम जीव उत्पन्न होते हैं, चर्बी और मधु जीवों की हिंसा से निष्पन्न होते हैं। मदिरा से उन्माद पैदा होता है, उसमें पैदा हुए अनेक कृमि-जीवों का घात होता है। दो पैर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं के व्यापार से उनको पराधीनता, वध, बंधन, भूख, प्यास आदि की पीड़ा होती है। अतः रसवाणिज्य और केशवाणिज्य दोनों त्याज्य है ।।१०८।। , अब विषवाणिज्य के बारे में कहते हैं
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