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Vyantari ka upadrav, kevaljnana, moksha
Yogashastra dvitiya prakash sloka 102 se 105 .158. Aishvarya-raja-rajopi, rupa-mina-dhvajopi ca | Sitaya ravana iva, tyajya naryanarah parah ||102||
Artha:- Sampatti mein rajaon ka raja ho, roop mein kamdeva jaisa ho to bhi Sita ne Ravana ko tyaga vaise anya striyon ko par purush ka tyag karna chahiye.||102||
Vyakhya:- Dharmakaarya ka adhikari kevala purush hi nahin hai, striyon ka bhi poora adhikar hai. Kyonki tirthankaraon ke chaturvarnya shramana-sangha mein sadhvi aur shravika ko bhi sthan hai, ve bhi sangha ki ang maani gayi hai. Is karan jaise grihasthapur-ush ke liye parastri-sevan varjit hai, vaise hi grihasthastriyon ke liye bhi parapurush-sevan ka nishekh hai. Atas jaise Sita ne Ravana ka tyag kiya tha, vaise hi stri ko pati ke atirikta tamam parapurushon ka tyag karna chahiye. Sita ka charittra poorva mein kaha hua hai.||102||
Nrpunsakatvam tiryaktvam, daurabhagyam ca bhave-bhave | Bhavennranam strinam canyakantasakta-cetasam ||103||
Artha:- Jo striyan parapurush mein asakta hoti hain tatha jo purush parastri mein asakta hote hain, un striyon ya purushon ko janma-janmantara mein napunsakata, tiryakva (pashupakshiyoni) aur daurabhagya-tva prapat hote hain.||103||
Pranabhotam charitrasya, parabrahmaikakaranam | Samacharan brahmacharya pujitairapi pujyate ||104||
Artha:- Deshavirata ya sarvavirata charittra ke pranabhoot aur parabrahmma (paramatma ki) prapthi (mukti) ke ekamattra (asadharan) karan, brahmacharya ka palan karne vala manushya sirf samanya manushyon dwara hi nahin, sura, asura aur rajaon (pujitaon) dwara bhi puja jata hai.||104||
Chirayushah susamsthana, drdhasanhanana narah | Tejasvinah mahaviriyas bhaveyur brahmacha-ryatah ||105||
Artha:- Brahmacharya ke pratap se manushya anuttar-aupapattika devadi sthanon mein utpanna hokar dirgha-ayu, samachaturastra (dilldaul) vale, majboot haddiyon se yukta-vajra rshabhanara-cha namak sanhanana vale, tejasvi sharira kantiman deh vale, tirthankar adi chakravarti adi ke roop mein mahaba-lashali hote hain.||105||
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व्यंतरी का उपद्रव, केवलज्ञान, मोक्ष
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १०२ से १०५ ।१५८। ऐश्वर्यराजराजोऽपि, रूपमीनध्वजोऽपि च । सीतया रावण इव, त्याज्य नार्यानरः परः ।।१०२॥ ___ अर्थ :- संपत्ति में राजाओं का राजा हो, रूप में कामदेव जैसा हो तो भी सीता ने रावण को त्यागा वैसे अन्य स्त्रियों
को पर पुरुष का त्याग करना चाहिए ।।१०।। व्याख्या :- धर्मकार्य का अधिकारी केवल पुरुष ही नहीं है, स्त्रियों का भी पूरा अधिकार है। क्योंकि तीर्थंकरों के चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ में साध्वी और श्राविका को भी स्थान है, वे भी संघ की अंग मानी गयी है। इस कारण जैसे गृहस्थपुरुष के लिए परस्त्री सेवन वर्जित है, वैसे ही गृहस्थ स्त्रियों के लिए भी परपुरुष सेवन का निषेध है। अतः जैसे सीता ने रावण का त्याग किया था, वैसे ही स्त्री को पति के अतिरिक्त तमाम परपुरुषों का त्याग करना चाहिए सीता का चरित्र पूर्व में कहा हुआ है।।१०२।।
अब स्त्री या पुरुष के दूसरे पुरुष या दूसरी स्त्री में आसक्त होने का फल बताते हैं।१५९। नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं, दौर्भाग्यं च भवे-भवे । भवेन्नराणां स्त्रीणां चान्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥१०३।। अर्थ :- जो स्त्रियाँ परपुरुष में आसक्त होती हैं तथा जो पुरुष परस्त्री में आसक्त होते हैं, उन स्त्रियों या पुरुषों को
जन्म-जन्मांतर में नपुंसकता, तिर्यक्त्व (पशुपक्षीयोनि) और दौर्भाग्यत्व प्राप्त होते हैं ।।१०३।। अब्रह्मचर्य को निन्दित बताकर अब ब्रह्मचर्य के इहलौकिक गुण बताते हैं।१६०। प्राणभूतं चरित्रस्य, परब्रह्मैककारणम् । समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते ।।१०४।। अर्थ :- देशविरति या सर्वविरति चारित्र के प्राणभूत और परब्रह्म (परमात्मा की) प्राप्ति (मुक्ति) के एकमात्र |
(असाधारण) कारण, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला मनुष्य सिर्फ सामान्य मनुष्यों द्वारा ही नहीं, सुर,
असुर और राजाओं (पूजितों) द्वारा भी पूजा जाता है ।।१०४।। अब ब्रह्मचर्य के पारलौकिक गुण बताते हैं।१६१। चिरायुषः सुसंस्थाना, दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥१०५।। अर्थ :- ब्रह्मचर्य के प्रताप से मनुष्य अनुत्तरौपपातिक देवादि स्थानों में उत्पन्न होने से दीर्घायु, समचतुरस्र
(डिलडौल) वाले, मजबूत हड्डियों से युक्त-वज्र ऋषभनाराच नामक संहनन वाले, तेजस्वी शरीर
कांतिमान देह वाले, तीर्थकर आदि चक्रवर्ती आदि के रूप में महाबलशाली होते हैं ।।१०५।। अब ब्रह्मचर्य की महिमा के संबंध में कुछ श्लोकार्थ प्रस्तुत करते हैं
कामी मनुष्य स्त्रियों की टेढ़ीमेढ़ी सर्पाकार केशराशि को देखता है, परंतु उसके मोह के कारण होने वाली दुष्कर्म परंपरा को नहीं देखता। सिंदुरी रंग से भरी हुई नारियों के बाल की मांग को देखता है, लेकिन सीमंतनामक नरकपथ है, उसका उसे पता नहीं है। सुंदर, रंगरूप वाली सुंदरियों की भ्रू-लता को मोक्षमार्ग पर प्रयाण करने में बाधक सर्पिणी कहा है, क्या तुम इसे नहीं जानते? मनुष्य अंगनाओं के मनोहर नेत्रों के कुटिल कटाक्षों का अवलोकन करता है, मगर इससे उसका जीवन नष्ट होता है, यह नहीं देखता। वह स्त्रियों के सरल और उन्नत नासिकावंश (नाक रूपी डंडे) की प्रशंसा करता है, परंतु मोह के कारण अपने वंश को नष्ट होता हुआ नहीं देखता। स्त्रियों के कपोल रूपी दर्पण में पड़े हुए अपने प्रतिबिंब को देखकर खुश होता है, लेकिन खुद को उस जड़भरत के समान संसार रूपी तलैया के कीचड़ में फंसा हुआ नहीं जानता। रतिक्रीड़ा के सभी सुख समान हैं, इस दृष्टि से स्त्री के लाल ओठ का पान करता है, लेकिन यमराज उसके आयुष्यरस का पान कर रहा है, इसे नहीं समझता। स्त्रियों के मोगरे की कली के समान उज्ज्वल दांतों को तो आदर पूर्वक देखता है, किंतु बुढ़ापा जबर्दस्ती उसके दांत तोड़ रहा है, इसे नहीं देखता। स्त्रियों के कर्णफूल (कानपाश) को कामदेव के हिंडोले की दृष्टि से देखता है, लेकिन अपने कंठ और गर्दन पर लटकते हुए काल के पाश को नहीं देखता। भ्रष्टबुद्धि मानव रमणियों के मुख को हर क्षण देखता है, परंतु खेद है कि यमराज के मुख को देखने का उसे समय नहीं है। कामदेव के वशीभूत बना हुआ मनुष्य स्त्रियों के कंठ का आश्रय लेता है, लेकिन आज या कल | देरसबेर से कंठ तक आये हुए प्राणों को नहीं जानता। दुर्बुद्धि मानव युवतियों के भुजलता के बंधन को तो अच्छा समझता | है, लेकिन कर्मों से जकड़ी हुई अपनी आत्मा के बंधनों के लिए नहीं सोचता। अंगनाओं के करकमल के स्पर्श से खुश हुआ पुरुष रामाच कं काट का ता धारण करता है, लोकन नरक के कूटशाल्माल वृक्ष के तखि काट को याद नहीं करता।
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