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## Yoga Shastra, Second Light, Verses 55-57
**Verses 55-57**
**Verse 55**
**Meaning:** One should not speak falsehood (gross untruth) that is against all beings, that is treacherous, and that is against virtue, i.e., that supports sin.
**Explanation:** Falsehood related to a daughter, a cow, and land is against the whole world and is known to be extremely reprehensible in social conduct. Therefore, one should not speak such falsehood. Falsehood spoken for the sake of a deposit is treacherous, so one should abandon it. And one should not give false testimony by believing in a dharma that is against virtue, i.e., a dharma that is sinful and against righteousness.
**Verse 56**
**Meaning:** By speaking falsehood, a person gains insignificance (disrepute) in this world. By falsehood, this person is called a liar, and such slander or ill-repute occurs in the world. By speaking falsehood, a person attains a low state. Therefore, one should abandon falsehood.
**Explanation:** Although speaking falsehood with a bad intention (contaminated intention) is prohibited, what is the harm if one speaks falsehood by mistake? In response to this, it is said:
**Verse 57**
**Meaning:** A wise person should not speak falsehood even by mistake (due to ignorance, delusion, blind faith, or carelessness). Just as strong winds break and destroy large trees, so too does falsehood destroy great virtues.
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योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ५५ से ५७
चतुष्पद या निर्जीव पदार्थों को मुख्य रूप से नहीं बताया गया, गौण रूप से तो इन तीनों के अंतर्गत द्विपद, चतुष्पद या समस्त निर्जीव पदार्थों का समावेश हो जाता है।
४. न्यासापहरण-विषयक असत्य
असत्य निषेध
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किसी को प्रामाणिक या ईमानदार मानकर सुरक्षा के लिए या संकट आ पड़ने पर बदले में कुछ अर्थराशि लेकर अमानत के तौर पर किसी के पास अपना धन, मकान या कोई भी चीज रखी जाती है, उसे न्यास, धरोहर, गिरवी या बंधक कहते हैं। ऐसे न्यास के विषय में झूठ बोलना, या रखने वाले को कमोवेश बताना अथवा अधिक दिन हो जाने पर लोभवश उसे हड़प जाना अथवा धरोहर रखने वाला अपनी चीज मांगने आये, तब मुकर जाना, उलटे उसे ही झूठा बताकर बदनाम करना या डांटना-फटकारना न्यासापहरण असत्य कहलाता है। यह भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद | से चार प्रकार का हो सकता है।
५. कूटसाक्षी - विषयक असत्य
किसी झूठी बात को सिद्ध करने के लिए झूठी गवाही देना या झूठे गवाह तैयार करके झूठी साक्षी दिलाना कूटसाक्षी - विषयक असत्य कहलाता है। हिंसा, असत्य, दंभ, कपट और कामोत्तेजना के पोषक शास्त्र, ग्रंथ या वचनों को मिथ्या जानते हुए भी उनकी प्रशंसा करना, उनका समर्थन करना अथवा किसी की झूठी या पापपूर्ण बात को भी सच्ची सिद्ध करने के लिए झूठ बोलकर, झूठी सफाई देना ये सब कूटसाक्षी-विषयक असत्य के प्रकार है। यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार का हो सकता है ।। ५४ ।।
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दूसरे धर्मों में प्रसिद्ध पाप रूप लक्षणविशेष की अपेक्षा से यह पूर्वोक्त चारों असत्यों से अलग बताया गया है। ये पांचों क्लिष्ट आशय-बुरे इरादे से उत्पन्न होने के कारण राज्य- दंडनीय और लोक भंडनीय - निद्य माने जाते हैं, इसलिए इन्हें स्थूल असत्य (मृषावाद) समझना चाहिए।
इन पांचों स्थूल असत्यों का विशेष रूप से प्रतिपादनकर इनका निषेध करते हैं
| १११ । सर्वलोकविरुद्धं यद् यद् विश्वसितघातकम् । यद् विपक्षश्च पुण्यस्य, न वदेत् तदसूनृतम् ॥५५॥ अर्थ :- जो सर्वलोकविरुद्ध हो, जो विश्वासघात करने वाला हो और जो पुण्य का विपक्षी हो यानी पाप का पक्षपाती हो, ऐसा असत्य (स्थूल मृषावाद) नहीं बोलना चाहिए || ५५ |
व्याख्या : - कन्या, गाय और भूमि से संबंधित असत्य सारे जगत् के विरुद्ध और लोक व्यवहार में अत्यंत निंदनीय रूप से प्रसिद्ध है, अतः ऐसा असत्य नहीं बोलना चाहिए। धरोहर के लिए असत्य बोलना विश्वासघात - कारक होने से | उसका भी त्याग करना चाहिए। तथा पुण्य-धर्म से विरुद्ध अर्थात् धर्मविरुद्ध पापकारक अधर्म को प्रमाण मानकर उस | पर विश्वास रखकर झूठी साक्षी नहीं देना चाहिए ।। ५५ ।।
अब असत्य का दुष्फल बताते हुए असत्य के त्याग का उपदेश देते हैं
।११२। असत्यतो लघीयस्त्वम्, असत्याद् वचनीयता । अधोगतिरसत्याच्च, तदसत्यं परित्यजेत् ॥५६॥
अर्थ :- असत्य बोलने से व्यक्ति इस लोक में लघुता (बदनामी) पाता है, असत्य से यह मनुष्य झूठा है, इस तरह की निंदा या अपकीर्ति संसार में होती है। असत्य बोलने से व्यक्ति को नीचगति प्राप्त होती है। इसलिए असत्य का त्याग करना चाहिए ||५६ ||
व्याख्या :- बुरे इरादे (क्लिष्ट आशय ) से असत्य बोलने का चाहे निषेध किया हो, परंतु कदाचित् प्रमादवश असत्य बोला जाय तो उससे क्या हानि है? इसके उत्तर में कहते हैं
।११३। असत्यवचनं प्राज्ञः प्रमादेनाऽपि नो वदेत् । श्रेयांसि येन भज्यन्ते, वात्ययेव महाद्द्रुमाः ।।५७||
अर्थ :- समझदार व्यक्ति प्रमादपूर्वक (अज्ञानता, मोह, अंधविश्वास या गफलत से) भी असत्य न बोले । जैसे प्रबल अंधड़ से बड़े-बड़े वृक्ष टूटकर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही असत्य महाश्रेयों को नष्टकर देता 114011
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