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चिकित्साकलिका। सकते हैं । पश्चात् ४ द्रोण परिस्रुत भस्म जल में आठपल शंख के टुकडों को गरम कर तब तक बुझावें जबतक सूक्ष्मचूर्ण न होजाय । तदनन्तर दन्ती, द्रवन्ती (बडी दन्ती), अतीस, बिडनमक, मूसली, वच, वृक्षकरा के पत्ते, हींग, काञ्चनी (सत्यानासी) सर्जिक्षार, चित्रकमूल, लांगली (कलिहारी); प्रत्येक के आधा पल चूर्ण का आवाप करें । इस क्षारोदक को इस प्रकार सिद्ध करना चाहिये जिससे वह विपक्व होकर न पतला रहे और न गाढा होजाय । इस प्रकार सिद्ध हुए क्षार द्वारा दग्ध अर्श प्रभृति पुनः उत्पन्न नहीं होते जैसे वज्र से दग्ध हुए वृक्ष पुनः पैदा नहीं होते। यह तीक्ष्ण क्षार है । यदि केवल शंख का प्रतिवाप हो और उसके पश्चात् दन्ती आदि को न डालकर पका लिया जाय तो मध्यम क्षार होता है और यदि शंख को भी न डालें, केवल क्षारजल को पकालें तो मृदुक्षार बनता है । रोगी की व्याधि, बल, देश, आयु तथा काल आदि का विचार करके यथाविधान क्षार का प्रयोग करना चाहिये ॥३६१-३६४ ॥
इति आयुर्वेदाचार्य श्रीजयदेव विद्यालंकार विरचितायां परिमलाख्यायां चिकित्साकलिकाव्याख्यायां .
शल्यतन्त्रं समाप्तम् ।
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अथ भूतविद्या। शल्यतन्त्रानन्तरं यथोद्देशं भूतविद्यारम्भः। भूतविद्येति कोऽर्थः? उच्यते-भूतावेशनिराकरणार्थ विद्या भूतविद्या । भूतानि देवग्रहादयः। तथा च सुश्रुतः-भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षःपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिग्रहणादिग्रहोपशमनार्थमिति । तेषां च देवग्रहादीनां सिद्धार्थककल्याणकघृतादीनि प्रत्यनीकानीति कृत्वा सिद्धार्थकघृतमाह
सिद्धार्थत्रिकटुक्षपायुगवचामञ्जिष्ठिकारामठश्वेताद्वात्रिफलाकरञ्जकटभीश्यामाशिरीषामरैः। इत्यष्टादशभिः शृतं घृतमिदं गोमूत्रयुक्तं नृणामुन्मादनमपस्मृतिघ्नमगदं स्याद्वस्तमूत्रेण वा ॥ ३६५ ।।
इत्यष्टादशभिः सिद्धार्थकादिभिर्द्रव्यैः कार्षिकैघृतप्रस्थं शृतं पकं गोमूत्रयुक्तं चतुर्गुणगोमूत्रसहितं नृणां प्राणिनां उन्मादघ्नं अपस्मृतिर
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