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शोषचिकित्सा। पाणिः-"शिलाजतुसमं द्रव्यं क्वाथ्यमष्टगुणे जले । पादावशिष्टं तत्पूतं तस्मिन्कोष्ण विनिक्षिपेत्"। अन्यैश्वाचार्यैः अष्टभागावशेषः क्वाथः क्रियत इत्युक्तम् । तथा च ग्रन्थान्तरम्-“समगिरिजमष्टगुणितैः क्वाथ्यं तद्भावनौषधं तोयैः । तन्नि!हेऽष्टांशे पूतोष्णे प्रक्षिपेत् गिरिजम् । तत्समरसतां यातं संशुष्कं प्रक्षिपेद् रसे भूयः ॥ स्वैः स्वैरेवं क्वाथै व्यं वारान् भवेत् सप्त ॥ एवं त्रैफले क्वाथे भाव्यं भावनीयम्। तदनन्तरं दशमूलक्वाथेन । तदनु पश्चात् छिन्नोद्भवायाः गुडूच्याः रसे क्वाथे । ततश्च वाट्यालक्वथने बलाकषाये । ततोऽनु पटोलसलिले पटोलक्वाथे। पुनर्यष्टीकषाये यष्टीमधुक्वाथे ॥ अथानन्तरं गोमूत्रे । एवं त्रीन् त्रीन् वारान् क्रमेण एकैकेन त्रिफलादिकषायेण भावनीयम्। तदनन्तरं गवां पयसि दुग्धे भावनीयमेकं वारम् । ततः पश्चादेषां द्राक्षादीनां क्वाथे सप्तवारान् भावयेदिति । कथं एष लक्षणो विशेषो लभ्यत इति चेत् तथा च ग्रन्थान्तरम्-“काले रवितापाठ्ये कृष्णाभासं शिलाजतु प्रवरम् । त्रिफलारससंयुक्तं व्यहं विशुद्धं पुनः शुष्कम् ॥ दशमूलस्य गुडूच्या रसे बलायास्तथा पटोलस्य । मधुकरसे गोमूत्रे त्र्यहं व्यहं भावयेत् क्रमशः ॥ एकाहं क्षीरेण तु ततो भावयेत्पुनः शुष्कम् । सप्ताहं भाव्यं स्यात् क्वाथे तेषां यथालाभमिति ॥ २७० ॥
शिवगुटिका-शरद् ऋतु अथवा ग्रीष्मऋतु में उत्तम शिलाजीत की जल द्वारा शुद्धि करें । इसका जल द्वारा शुद्ध करने का विधान इस प्रकार है कि प्रथम अगर, अरहर, नीम, गिलोय, घी तथा जो इनके धूम से कीट पतंग आदि के दोष निवारणार्थ धूपन करें और कृष्णलौह के चार पात्रों को धूप में रख ध्यानपूर्वक एक पात्र में शिलाजीत से दुगना साधारण जल और आधे परिमाण में अत्युष्ण जल डाल कर शिलाजीत को अच्छी प्रकार मसल दें। तदनन्तर धूप में निश्चल पड़ा रहने दें। जब शिलाजीत जल में घुल जाय और जल का रंग कृष्ण वर्ण का होजाय तब पानी को नितार कर दूसरे पात्र में डाल दें। इसे भी निश्चलभाव से धूप में पड़ा रहने दें। इससे रेत का अंश नीचे बैठ जायगा । पुनः नितार कर क्रमशः तीसरे पात्र में डालदें और अन्त में तीसरे पात्र में जब रेत का सम्पूर्ण अंश नीचे बैठ जाय तब चौथे पात्र में डाल दें और निश्चलभाव से पड़ा रहने दें। जब शुष्क होजाय तब पृथक् करलें । इस प्रकार तब तक करें जब तक शिलाजीत का सम्पूर्ण भाग पृथक् न होजाय । अर्थात् जल डालने से जल कृष्णवर्ण का न हो वैसा ही स्वच्छ रहे और मल नीचे बैठा रहे । इस प्रकार शिलाजतु का शोधन करके क्रमशः त्रिफलाक्वाथ, दशमूलक्वाथ, गिलोय का रस, बलाक्वाथ, पटोलपत्र का स्वरस, मुलहठी का क्वाथ; गोमूत इनसे तीन २ वार