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________________ मूत्रकृच्छ्चिकित्सा। १७७ नमक, बिडनमक तथा गृहधूम डालकर अंगूठे के बराबर मोटी वर्ति बनावें । इस वर्ति को गुदा में रखने से कठिन तया वटकरूप मलयुक्त उदावर्त्त रोग नष्ट होता है ॥ २५७ ॥ . इति आयुर्वेदाचार्य श्रीजयदेव विद्यालंकार विरचितायां परिमलाख्यायां चिकित्साकलिकाव्याख्यायां उदावर्त्तचिकित्सा समाप्ता। --::-- अथ मूत्रकृच्छचिकित्सा। उदावर्त्तचिकित्सानन्तरं यथोद्देशं मूत्रकृच्छचिकित्सितमाह त्रुटिहरेणुकणावृषयष्टिका त्रिकटकोरुवुकोपलभेदकैः। शृतमिदं जलमश्मजतूत्कटं जयति साश्मरिमूत्रविनिग्रहम् ॥ २५८॥ . त्रुट्यादिभिः शृतमिदं जलं क्वाथं अश्मजतूत्कटं शिलाजतु प्रधानं पीतं मूत्रविनिग्रहं मूत्रकृच्छं जयति । साश्मरि अश्मर्या सह । त्रुटिरेला । हरेणुः रेणुका । कणा पिप्पली । वृषं वासकम् । यष्टिका यष्टीमधु । त्रिकटको गोक्षुरकः । उरुवुकः एरण्डः। उपलभेदकः पाषाणभेदकः। एभिः पलप्रमाणैः शृतं पक्वं शिलाजतुकर्षयुतं मूत्रकृच्छू जयति निवारयतीति ॥ २५८ ॥ इति मूत्रकृच्छ्चिकित्सा समाप्ता। युट्यादिक्वाथ-छोटी इलायची, रेणुका, पिप्पली, अडूसा, मुलहठी, गोखरू एरण्डमूल, पाषाणभेद; मिलित २ तोले,क्काथार्थ जल ३२ तोले, अवशिष्टक्वाथ ८ तोले। इस क्वाथ में शीतल होने पर ४ रत्ती विशुद्ध शिलाजीत का प्रक्षेप देकर पीने से अइमरी (पथरी) तथा मूत्रकृच्छू रोग नष्ट होता है ॥ २५८ ॥ इति आयुर्वेदाचार्य श्रीजयदेव विद्यालंकार विरचितायां परिमलाख्यायां चिकित्साकलिकाव्याख्यायां मूत्रकृच्छचिकित्सा समाप्ता । -- :--
SR No.002391
Book TitleChikitsa Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendranath Mtra
PublisherMitra Ayurvedic Pharmacy
Publication Year
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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