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________________ १६८ चिकित्साकलिका। कारि । शीते त्वगादीनां पलद्वयेन युक्तम् । त्वक् वराङ्गम् । नागपुष्पं नागकेसरम् । तृटिः एला । पत्रं तमालपत्रकम् । एतत् खण्डकूष्माण्ड पुराणमधुनः कुडवद्वयेन द्रवद्रव्यत्वात् षोडशभिः संयोजितम् । जन्तुषु प्राणिप्नु रक्तपित्तं जयति ऊर्ध्व प्रवृत्तमास्यघ्राणप्रवृत्तम् । गुह्यगुदप्रवृत्तमपि । भुवि हृद्यमस्मात्परमन्यन्न भवेत् । मूत्रकृच्छ्रादीनपहरेत्। अतिवृष्यं शुक्रजननम्।अर्शः शमयेत् रक्तात्मकं रक्तपित्तसंभवम्। बुद्धिं. प्रज्ञां विदधाति करोति ॥ २३९–२४१ ॥ खण्डकूष्माण्ड-एक सुपक्क एवं पुरातन कूष्माण्ड (पेठे) का छिलका उतारले और बीजों को निकाल दें। पश्चात् इसके टुकड़े कर अच्छी प्रकार पीस लें और वस्त्र, द्वारा निष्पीडन कर रस को पृथक् करलें। अवशिष्ट पेठे को धूप में किंचित् शुष्क करलें । इस प्रकार १०० पल पेठे के कल्क को २ प्रस्थ घी में भूनलें। जब अच्छी प्रकार भृष्ट होकर मधु सदृश हो जाय तब पृथक् किये हुए ८ प्रस्थ पेठे के रस में १०० पल (१० सेर) खांड घोलकर उसमें डालदें और पुनः पाक करें। जब पाक करते २ अवलेह सदृश हो जाय और पाक शेष काल हो तब सोंठ, जीरा, पिप्पली; प्रत्येक का चूर्ण २ पल डाल कर अच्छी प्रकार आलोडन करें और नीचे उतार लें। शीतल होने पर दारचीनी, नागकेसर, छोटी इलायची, तेजपत्र; इनके मिलित २ पल चूर्ण का प्रक्षेप दें और १६ पल पुरातन मधु मिलावें । मात्रा-१ तोले से २ तोले तक । मुख आदि मार्ग द्वारा प्रवृत्त ऊर्ध्वग रक्तपित्त, तथा गुह्य एवं गुदा द्वारा प्रवृत्त होने वाले अधोग रक्तपित्त में इस से उत्कृष्ट अन्य औषध नहीं । यह हृद्य है। इसके सेवन से मूत्रकृच्छू, अरुचि, के, तृष्णा, मूर्छा, अपस्मार, उरःक्षत, ऊर्धवात, उन्माद तथा रक्तार्श प्रभृति रोग शान्त होते हैं। यह शुक्रजनक तथा बुद्धिवर्धक है। अन्यत्र पठित खण्डकूष्माण्ड में नागकेसर का पाठ नहीं मिलता। वहां धनियां कालीमिर्च पृथक् २ आधा पल डालने का विधान है ॥ २३९-२४१ ॥ खण्डकूष्माण्डकानन्तरं एलादिगुटिकामाह एला वराङ्गमपि पत्रकमेतदर्द्धकर्षांशकं मगधजार्द्धपलं प्रकल्प्यम् । मृद्वीकया च सितया मधुकेन युक्तं खजूरकेण च पलप्रमितैश्चतुर्भिः ॥ २४२ ॥ एलादिका मधुयुता गुटिकातिहया वृष्या तृषं प्रशमयेदति रक्तपित्तम् ।
SR No.002391
Book TitleChikitsa Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendranath Mtra
PublisherMitra Ayurvedic Pharmacy
Publication Year
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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