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श्वासकास चिकित्सा ।
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व्याघ्री कण्टकारिका तस्याः शतं पलशतं स्यात् । तथा अभया हरीतकीफलं शतं च । द्रोणे जलस्य कषायं विपचेत् । द्रोणं द्रवद्रव्यस्य पञ्चभिः पलशतैर्द्वादशाधिकैर्भवति । पुनस्तत्कषायं चतुर्थीशावशिष्टं ताभिरभयाभिः : सह यास्ताः पूर्ववत् स्विन्नाः । तुलाप्रमाणेन गुडेन च युक्तं पक्त्वा अत्र च अस्मिन् शीते मधुनः षट्पलानि । कटुत्रिकस्य चूर्ण त्रीणि पलानि । त्वक्पत्रकैलाकरिकेसराणां च चूर्णात् पलं क्षिपेदिति सर्वत्राभिसंबध्यते । करिकेसराणां नागकसेराम् । इत्येव विदेहदृष्टः क्षुद्रावलेहः कफजान् विकारान् हन्यात् हन्ति । वह्नेरग्नेश्च विवृद्धिं दीप्तिं करोति ॥ २२९–२३१ ॥
छोटी कटेरी १०० पल ( १० सेर), पोटली में बंधी हुई हरड़ १०० (संख्या से) क्वाथार्थ जल २ द्रोण, अवशिष्ट क्वाथ आधा द्रोण । इस क्वाथ को छानकर इस में १ तुला गुड़ घोल दें और उपर्युक्त स्विन १०० हरड़ डालकर पकावें । जब गाढा होजाय तब नीचे उतार लें । शीतल होने पर त्रिकटु ( मिलित) ३ पल, दारचीनी, तेजपत्र, छोटी इलायची, नागकेसर, प्रत्येक का चूर्ण १ पल तथा मधु ६ पल का प्रक्षेप देकर कड़छी से अच्छी प्रकार मिलालें । मात्रा -लेह आधा तोला तथा आधी हरड़ । इस व्याघ्री हरीतकी का दूसरा नाम क्षुद्रावलेह भी है । इस विदेहोक्त क्षुद्रावलेह के सेवन से कफज रोग, श्वास, शोफ, पांचों कास, हिक्का, उरोरोग ( फुप्फुसरोग ), अपस्मार प्रभृति रोग नष्ट होते हैं तथा जाठराग्नि उद्दीप्त होती है। यदि हरीतकी का इस प्रकार पाक न करके गुड़ पाक के काल में ही इसके चूर्ण को डाल पाक किया जाय तो इस की मात्रा आधे तोले से एक तोले तक समझनी चाहिये । भृगूपदिष्ट व्याघ्री हरीतकी और विदेहोक्त व्याघ्रीहरीतकी में थोड़ा सा भेद है । वह भेद केवल इतना ही है कि भृगूपदिष्ट लेह में त्रिकटु चूर्ण का प्रक्षेप पृथक् २ दो पल परिमाण में दिया जाता है और इस में त्रिकटु चूर्ण मिलित ३ पल के प्रक्षेप देने का विधान है ॥२२९॥२३१॥ क्षुद्रावलेहानन्तरं चित्रकहरीतकीमाहचत्वार्यत्र शतानि चित्रकजटायुक्पञ्चमूलामृताधात्रीणामुदकार्मणैस्त्रिभिरपां द्रोणेन च क्वाथयेत् । पादस्थे कथने गुडस्य च शतं पथ्याढकेनान्वितं पक्तव्यं शृतशीतले च मधुनः प्रस्थार्द्ध मात्रं क्षिपेत् ॥ २३२॥ व्योषस्य त्रिसुगन्धिकस्य च पलान्यत्रैव षट् प्रक्षिपेत् क्षारस्यार्द्धपलं रसायनमिदं संसेव्यते सर्वदा ।