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________________ उदररोगचिकित्सा। १३१ हन्ति सर्वोदराण्येतच्चूर्ण जातोदकान्यपि । कामलां पाण्डुरोगञ्च श्वयधुं चापकर्षति" । इति ॥ १६७–१६८ ॥ पटोलादिचूर्ण-पटोलमूल (परवल की जड़), हरड़, बहेड़ा, आंवला, हल्दी वायविडंग; प्रत्येक २ तोले, नीलनीबीज ६ तोले, निसोत ८ तोले । इनके चूर्णो को एकत्र मिश्रित कर गोमूत्र के साथ योग्य मात्रा में सेवन करावें । मात्रा-२ मासा ॥ यह चूर्ण सम्पूर्ण उदर, शोफ, कामला, पाण्डु तथा हलीमक रोग को नष्ट करता है। यद्यपि मूल में १ पल मात्रा दी है परन्तु आजकल इतनी बड़ी मात्रा घातक है ॥ १६७–१६८॥ अधुना चरकोक्तं विस्राद्यं चूर्णमाह विस्राशिलात्मकफलत्रयनीलिनीभिः कृष्णावचारुचकतिक्तकरोहिणीभिः । सत्रायमाणविदुलायवचित्रकाभि श्चूर्ण त्रिवृद्यतमिदं सकलोदरनम् ॥ १६९ ॥ इदं विस्राद्यचूर्ण सकलोदरघ्नम् । विस्रादीनामितरेतरद्वन्द्वः । वित्रा हबुषा । शिलात्मकं सैन्धवम् । रुचकं सौवर्चलम् । विदुला शातला। यवचित्रा स्वर्णक्षीरी। शेषाणि प्रसिद्धानि । यद्यप्यत्र पानार्थ न किंचिद् द्रव्यमुद्दिष्टं संक्षेपार्थिना ग्रन्थक; तथापि दाडिमांभस्त्रिफलाक्वाथमांसरसगोमूत्रसुखाम्बुभिः पातव्यं गुल्मप्लीहोदरादिषु । तथा च चरकः-हपुषां काञ्चनक्षीरी त्रिफलां कटुरोहिणीम् । नीलिनी त्रायमाणां च सातलां त्रिवृतां वचाम् । सैन्धवं काललवणं पिप्पली चावचूर्णयेत् । दाडिमत्रिफलामांसरसमूत्रसुखोदकैः। पेयोऽयं सर्वगुल्मेषु प्लीह्नि सर्वोदरेषु च । श्वित्रकुष्ठेष्वजरके सदने विषमाग्निषु । शोफार्श:पाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमके। वातपित्तकफांश्चापि विरेकात्सम्प्रसा. धयेदिति" ॥ १६९ ॥ विस्राद्यचूर्ण-हाऊबेर, सैन्धानमक, त्रिफला, नीलिनीमूल, पिप्पली, वच, निसोत, सौंचलनमक, कटुकी, त्रायमाण, सातला, स्वर्णक्षीरीमूल (चोक); इन्हें एकत्र समभाग में मिला चूर्ण तय्यार करलें । इसे कोसे जल, त्रिफलाक्वाथ अथवा गोमूत्र के साथ सेवन करने से सम्पूर्ण उदररोग नष्ट होते हैं। मात्रा२ मासे ॥१६९॥
SR No.002391
Book TitleChikitsa Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendranath Mtra
PublisherMitra Ayurvedic Pharmacy
Publication Year
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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