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गणपाठे चतुर्थोऽध्यायः ।
४४९ १२३ संधिवेलातुनक्षत्रेभ्योऽण् ।४।३।१६॥ संधिवेला संध्या अमावास्या त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशी पौर्णमासी प्रतिपत् । संवत्सरात्फलपर्वणोः॥ इति संधिवेलादिः॥६७॥
१२५ दिगादिभ्यो यत् ।४।३।५४ ॥ दिश् वर्ग पूग गण पक्ष धाय्य मित्र मेधा अन्तर पथिन् रहस् अलीक उखा साक्षिन् देश आदि अन्त मुख जघन मेघ यूथ । उदकासंज्ञायाम् । ज्ञाय (न्याय ) वंश वेश काल आकाश ॥ इति दिगादिः ॥ ६८॥
१२५ * परिमुखादिभ्यश्च * ।४।३।५९ ॥ परिमुख परिहनु पर्योष्ठ पर्युलूखल परिसीर उपसीर उपस्थूण उपकलाप अनुपथ अनुपद अनुगङ्ग अनुतिल अनुसीत अनुसाय अनुसीर अनुमाष अनुयव अनुयूप अनुवंश प्रतिशाख ॥ इति परिमुखादिः॥ ६९॥
१२५ * अध्यात्मादिभ्यश्च * ।४।३।६० ॥ अध्यात्म अधिदेव अधिभूत इहलोक परलोक ॥ इत्यध्यात्मादिराकृतिगणः ॥७०॥
१२६ अणगयनादिभ्यः।४।३।७३ ॥ ऋगयन पदव्याख्यान छन्दोमान छन्दोभाषा छन्दोविचिति न्याय पुनरुक्त निरुक्त व्याकरण निगम वास्तुविद्या क्षत्रविद्या अङ्गविद्या विद्या उत्पात उत्पाद उद्याव संवत्सर मुहूर्त उपनिषद् निमित्त शिक्षा भिक्षा ॥ इत्यृगयनादिः ७१
१२७ शुण्डिकादिभ्योऽण् ।४।३।७६ ॥ शुण्डिक कृकण कृपण स्थण्डिला उदपान उपल तीर्थ भूमि तृण पर्ण ॥ इति शण्डिकादिः ॥७२॥
१२७ शण्डिकादिभ्यो ज्यः।४।३।९२ ॥ शण्डिक सर्वसेन सर्वकेश शक शट रक शङ्ख बोध ॥ इति शण्डिकादिः॥७३॥ - १२७ सिन्धुतक्षशिलादिभ्योऽणौ ।४।३।९३ ॥ १ सिन्धु वर्ण मधु मत कम्बोज साल्व कश्मीर गन्धार किष्किन्धा उरसा दरद (दरद् ) गन्दिका ॥ इति सिन्ध्वादिः॥७४॥
२ तक्षशिला वत्सोद्धरण कैर्मेदुर ग्रामणी छगल क्रोष्टकर्ण सिंहकर्ण संकुचित किंनर काण्डधार पर्वत अवसान बर्बर कंस ॥ इति तक्षशिलादिः॥७॥
१३० शौनकादिभ्यश्छन्दसि ।४।३।१०६ ॥ शौनक वाजसनेय शाङ्गरव शानेय शाष्पेय खाडायन स्तम्भ स्कन्ध देवदर्शन रज्जभार रजकण्ठ कठशाठ कषाय तल तण्ड पुरुषांसक अश्वपेज ॥ इति शौनकादिः ॥७६॥
१३० कुलालादिभ्यो बुञ् ।४।३।११८ ॥ कुलाल वरुड चाण्डाल निषाद कर्मार सेना सिरिन्ध्र (सिरिध्रि ) सैरिन्ध्र देवराज पर्षत् ( परिषत् ) वधू मधु रुरु रुद्र अनडुह् ब्रह्मन् कुम्भकार श्वपाक ॥ इति कुलालादिः॥ ७७॥
१४१ रैवतिकादिभ्यश्छः ।४।३।१३१ ॥ रैवतिक खापिशि क्षमवृद्धि गौरग्रीव (गौरग्रीवि ) औदमेधि औदवापि बैजवापि ॥ इति रैवतिकादिः॥७८॥