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गणपाठे चतुर्थोऽध्यायः ।
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११२ * खलादिभ्य इनिर्वक्तव्यः * |४| २/५१ ॥ खल डाक कुटुम्ब शाक कुण्डलिनी || इति खलादिराकृतिगणः ॥ ३० ॥
११२ राजन्यादिभ्यो वुञ् |४| २|५३ || राजन्य आमृत बाभ्रव्य शालङ्कायन दैवयातव (देवयात ) [ अनीड वरत्रा ] जालंधरायण [ राजायन ] तेल आत्मकामेय अम्बरीषपुत्र वसात बैल्ववन शैलूष उदुम्बर तीव्र बैल्वल आर्जुनायन संप्रिय दाक्षि ऊर्णनाभ ॥ इति राजन्यादिराकृतिगणः ॥ ३१ ॥
११२ भौरिक्यांयैषुकार्यादिभ्यो विधभक्तलौ | ४|२| ५४ ॥ १ भौरिकी भौलिकी चौपयत चौपटत ( चैटयत ) काणेय वाणिजक वाणिकाज्य ( वालिकाज्य ) सैकयत वैकयत् ॥ इति भौरिक्यादिः ॥ ३२ ॥
१ ऐषुकारि सारस्यायन ( सारसायन ) चान्द्रायण व्याक्षायण व्याक्षायण औडायन जौलायन खाडायन दासमित्रि दासमित्रायण शौद्रायण दाक्षायाण शापण्डायन ( शायण्डामन ) तार्क्ष्यायण शौभ्रायण सौवीर [ सौवीरायण ] शपण्ड ( शयण्ड ) शौण्ड शयाण्डि ( शयाण्ड ) वैश्वमानव वैश्वध्येनव ( वैश्वधेनव ) नड तुण्डदेव विश्वदेव [ सापिण्डि ] ॥ इत्यैषुकार्यादिः ॥ ३३ ॥
११३ ऋतूक्थादिसूत्रान्ताट्ठक् ||२|६० ॥ उक्थ लोकायत न्यास न्याय पुनरुक्त निरुक्त निमित्त द्विपदा ज्योतिष अनुपद अनुकल्प यज्ञ धर्म चर्चा क्रमेतर लक्ष (लक्षण) संहिता पदक्रम संघट ( संघट्ट) वृत्ति परिषद् संग्रह गण [ गुण ] आयुर्देव ( आयुर्वेद ) ॥ इत्युक्थादिः ॥ ३४ ॥
११४ क्रमादिभ्यो वुन् |४| २|६१ ॥ क्रमपद शिक्षा मीमांसा सामन् ॥ इति क्रमादिः ॥ ३५ ॥
११४ वसन्तादिभ्यष्ठक् । ४ |२| ६३ ॥ वसन्त ग्रीष्म वर्षा शरद् शरत् हेमन्त शिशिर प्रथम गुण चरम अनुगुण अथर्वन् आथर्वण ॥ इति वसन्तादिः ॥ ३६ ॥
१९५ संफलादिभ्यश्च |४| २|७५ || संकल पुष्कल उत्तम उडुप उद्वेष उत्पुट कुम्भ निधान सुदक्ष सुदत्त सुभूत सुपूत सुनेत्र सुमङ्गल सुपिङ्गल सूत सिकत पूतिका ( पूतिक ) पूलास कूलास निवेश ( गवेश) गम्भीर इतर आन् अहन् लोमन् वेमन् चरण (वरुण) बहुल सद्योज अभिषिक्त गोभृत् राजभृत् भल्ल मल्ल माल || इति संकलादिः ॥ ३७ ॥
११५ सुवास्त्वादिभ्योऽण् | ४|२|७७ || सुवास्तु ( सुवस्तु ) वर्ण भण्ड्डु खण्डु सेवालिन् कर्पूरन् शिखण्डिन् गर्त कर्कश शकटीकर्ण कृष्णकर्ण [ कर्क ] कर्कन्धुमती गो अहिसक्थ ॥ इति सुवास्त्वादिः ॥ ३८ ॥
११५ वुञ्छ कठजिल सेनिरढण्यय्फ क्फिञिकक्ठको ऽरीहणशार्श्वदर्य कुमुदकोशर्तॄणप्रेक्षाइमसेखिसंकीशबैल पक्ष कर्णसुतंगमप्रगेंदि
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