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गणपाठे चतुर्थोऽध्यायः ।
४४३ रोहिण खजूर ( खजूर ) [ खञ्जार वस्त ] पिञ्जूल भडिल भण्डिल भडित भण्डित [प्रकृत रामोद ] क्षान्त [ काश तीक्ष्ण गोलाङ्क अर्क वर स्फुट चक्र श्रविष्ठ ] पविन्द पवित्र गोमिन् श्याम धूम धूम्र वाग्मिन् विश्वानर कुट । शप आत्रेये । जन जड खड ग्रीष्म अर्ह कित विशंप विशाल गिरि चपल चुप दासक वैल्य (बैल्व ) प्राच्य [धर्म्य ] आनडुह्य । पुंसि जाते । अर्जुन [प्रहृत ] सुमनस् दुर्मनस् मन (मनस्) [प्रान्त ] ध्वन । आत्रेय भरद्वाजे । भरद्वाज आत्रेये। उत्स आतव कितव [वद धन्य पाद ] शिव खदिर ॥ इत्यश्वादिः ॥१५॥
१०२ शिवादिभ्योऽण् ।४।१।११२ ॥ शिव प्रोष्ठ प्रोष्ठिक चण्ड जम्भ भूरि दण्ड कुठार ककुभ् ( ककुभा) अनभिम्लान कोहित मुख संधि मुनि ककुत्स्थ कहोड कोहड कहूय कहय रोध कपिञ्जल ( कुपिञ्जल ) खञ्जन वतण्ड तृणकर्ण क्षीरहद जलद परिल [ पथक ] पिष्ट हैहय [ पार्षिका ] गोपिका कपिलिका जटिलिका बधिरिका मञ्जीरक [ मजिरक ] वृष्णिक खञ्जास खञ्जाह [ कर्मार ] रेख लेख आलेखन विश्रवण रवण वर्तनाक्ष ग्रीवाक्ष [ पिटक विटक ] पिटाक तृक्षाक नभाक ऊर्णनाभ जरत्कारु [पृथा उत्क्षेप ] पुरोहितिका सुरोहितिका मुरोहिका आर्यश्वेत (अर्यश्वेत ) सुपिष्ट मसुरकर्ण मयूरकर्ण [ खजूरकर्ण ] कदूरक तक्षन् ऋष्टिषेण गङ्गा विपाश यस्क लह्य द्रुह्य अयस्थूण तृणकर्ण (तृण कर्ण) पर्ण भलन्द विरूपाक्ष भूमि इला सपत्नी। छचोः नद्याः। त्रिवेणी त्रिवणं च ॥ इति शिवादिः ॥ आकृतिगणः ॥ १६॥ - १०३ शुभ्रादिभ्यश्च ।४।१।१२३ ॥ शुभ्र विष्ट पुर ( विष्टपुर ) ब्रह्मकृत शतद्वार शलाथल शलाकाभ्रू लेखाभ्रू (लेखाभ्र ) विकंसा (विकास) रोहिणी रुहिणी धर्मिणी दिश् शालूक अजबस्ति शकंधि विमातृ विधवा शुक विश देवतर शकुनि शुक्र उग्र ज्ञातल (शतल ) बन्धकी सृकण्डु विनि अतिथि गोदन्त कुशाम्ब मकष्ट शाताहर पवष्टुरिक सुनामन् । लक्ष्मणश्यामयोर्वासिष्ठे । गोधा कृकलास अणीव प्रवाहण भरत ( भारत ) भरम मृकण्ड कर्पूर इतर अन्यतर आलीढ सुदन्त सुदक्ष सुवक्षस् सुदामन् कद्रुतुद अकशाय कुमारिका कुठारिका किशोरिका अम्बिका जिह्माशिन् परिधि वायुदत्त शकल शलाका खडूर कुबेरिका अशोका गन्धपिङ्गला खडोन्मत्ता अनुदृष्टिन् ( अनुदृष्टि ) जरतिन् बलीवर्दिन् विग्न बीज जीव श्वन् अश्मन् अश्व अजिर ॥ इति शुभ्रादिः॥ आकृतिगणः ॥१७॥
१०४ कल्याण्यादीनामिन च ।४।१।१२६ ॥ कल्याणी सुभगा दुर्भगा बन्धकी अनुदृष्टि अनुसृति ( अनुसृष्टि ) जरती बलीवर्दी ज्येष्ठा कनिष्ठा मध्यमा परस्त्री ॥ इति कल्याण्यादिः॥१८॥