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________________ ४४२ सिद्धान्तकौमुद्याम् । संज्ञायाम् । संभूयोम्भसोः सलोपश्च ॥ आकृतिगणोऽयम् ॥ तेन । सात्त्विकः जाङ्घ्रिः ऐन्दशर्मिः आजधेनविः इत्यादि ॥ इति बाह्रादयः ॥ १० ॥ १०१ गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्चफ |४|१|९८ || कुञ्ज ब्रध्न शङ्ख भस्मन् गण लोमन् शठ शाक शुण्डा शुभ विपाशु स्कन्द स्कम्भ || इति कुञ्जादिः ॥ ११ ॥ १०१ नडादिभ्यः फक् । ४|११९९ ॥ नड चर ( वर ) बक मुञ्ज इतिक इतिश उपक ( एक ) लमक । शलङ्क कलङ्कं च । सप्तल वाजप्य तिक | अग्निशर्मन्वृषगणे । प्राण नर सायक दास मित्र द्विप पिङ्गर पिङ्गल किङ्कर किङ्कल ( कातर ) फातल काश्यप ( कुश्यप ) काश्य काल्य ( काव्य ) अज अमुष्म अमुष्य ) कृष्णरणौ ब्राह्मणवासिष्ठे । अमित्र लिगु चित्र कुमार । क्रोष्टु क्रोष्टुं च । लोह दुर्ग स्तम्भ शिंशपा अग्र तृण शकट सुमनस् सुमत मिमत ऋच् जलंधर युगंधर हंसक दण्डिन् हस्तिन् [ पिण्ड ] पञ्चाल चमसिन् सुकृत्य स्थिरक ब्राह्मण चटक बदर अश्वल खरप लङ्क इन्ध अत्र कामुक ब्रह्मदत्त उदुम्बर शोण अलोह दण्डप || इति नडादिः ॥ १२ ॥ १०१ अनुष्यानन्तर्ये विदादिभ्योऽञ् |8 | १|१०४ || बिद उर्व कश्यप कुशिक भरद्वाज उपमन्यु किलात कन्दर्प ( किंदर्भ ) विश्वानर ऋषिषेण ( ऋष्टिषेण ) ऋतभाग हर्यश्व प्रियक आपस्तम्ब कूचवार शरद्वत् शुनक ( शुनक् ) धेनु गोपवन शिबिन्दु [ भोगक ] भाजन ( शमिक ) अश्वावतान श्यामाक श्यामक ( श्यावलि ) श्यापर्ण हरित किंदास वयस्क अर्कजूष ( अर्कलुष ) बध्योग विष्णुवृद्ध प्रतिबोध रचित ( रथीतर ) रथन्तर गविष्ठिर निषाद शबर अलस ) मठर ( मृडाकु ) सृपाकु मृदु पुनर्भू पुत्र दुहितृ ननान्दृ । परस्त्री परशुं च ॥ इति बिदादिः ॥ १३ ॥ १०२ गर्गादिभ्यो यञ् | ४|१|१०५ ॥ गर्ग वत्स । वाजासे । संकृति अज व्याघ्रपात् विदभृत् प्राचीनयोग ( अगस्ति ) पुलस्ति चमस रेभ अग्निवेश शङ्ख शट शक एक धूम अवट मनस् धनंजय वृक्ष विश्वावसु जरमाण लोहित शंसित बभ्रु वल्गु डुडु शङ्ख लिगु पुहलु मन्तु मङ्खु आलिगु जिगीषु मनु तन्तु मनायी सूनु कथक कन्थक ऋक्ष तृक्ष ( वृक्ष ) [ तनु ] तरुक्ष तलुक्ष तण्ड वतण्ड कपिकत ( कपि कत ) कुरुकत अनडुह् कण्व शकल गोकक्ष अगस्त्य कण्डिनी यज्ञवल्क पर्णवल्क अभयजात विरोहित वृषगण रहू - गण शण्डिल वर्णक ( चणक ) चुलुक मुद्गल मुसल जमदग्नि पराशर जतूकर्ण [ जातूकर्ण ] महित मन्त्रित अश्मरथ शर्कराक्ष पूतिमाष स्थूरा अदरक [ अररक ] एलाक पिङ्गल कृष्ण गोलन्द उलूक तितिक्ष भिषज [ भिषज् ] [ भिष्णज् ] भडित भण्डित दल्भ चेकित चिकित्सित देवहू इन्द्र एकल पिप्पल बृहदमि [ सुलोहिन् ] सुलाभिन् उक्थ कुटीगु ॥ इति गर्गादिः ॥ १४ ॥ १०२ अश्वादिभ्यः फञ् | ४|१|११० ॥ अश्व अश्मन् शङ्ख शुद्रक विद पुट
SR No.002377
Book TitleVaiyakaran Siddhant Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Lakshman Shastri
PublisherPandurang Jawaji
Publication Year1938
Total Pages532
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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