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________________ हो, इसलिये उन मुनिवर के सिवा अन्य कोई वर मुझे मान्य नहीं है । क्या आप नहीं जानते कि राजा एक बार ही बोलता है, मुनि एक बार बोलते हैं और कन्या भी एक ही बार दी जाती है।' सेठ ने कहा, 'हे पुत्री! अब वे मुनि मिलेंगे कैसे? क्योंकि अब तो वे विहार कर गये हैं। वे एक स्थान पर रहते तो नहीं। वे मुनि यहाँ पुनः आयेंगे कि नहीं? यदि आये तो वे किस तरह पहचाने जायेंगे?' श्रीमती ने कहा, 'उस समय देवताओं की गर्जना से मैं भयभीत हो गई थी। इससे बंदरिया की तरह उनके पैरों से लिपट पड़ी थी। उस समय मैंने उनके चरण में एक चिहन देखा था। उस चिहन से मैं उन्हें जरूर पहचान सकंगी। हे पिता! आप ऐसी तरकीब लड़ाओ जिससे आते-जाते सब साधुओं को प्रतिदिन देख सकू।'सेठ पुत्री के लिये ऐना प्रबन्ध किया गया जिससे हरेक साधू-रोज वहाँ आये और स्वयं भिक्षा देवें। भिक्षा देते समय श्रीमती उनकी वंदना करती, उनके चरण पर के चिह्न देखती। ऐसा करते हुए बारह वर्ष बीतने पर आर्द्रमुनि वहाँ पधारे । श्रीमती ने वंदना करते हुए, चरण पर चिह्न देखकर उन्हें पहचान लिया।और उनसे लिपट कर बोली, 'हे नाथ! उस देवालय में मैं आपको वरी थी। आप ही मेरे पति हैं। उस दिन आप मुझे छोड़कर चल दिये लेकिन आज नहीं जा सकोगे। यदि क्रूरतापूर्वक चले जाओगे तो मैं अग्नि में कूद पडूंगी और स्त्रीहत्या का पाप आपको लगेगा।' व्रत लेते समय उसके निषेध करती हुई दिव्यवाणी हुई थी वह मुनि को याद आई। भावि कभी मिथ्या नहीं हो सकता' ऐसा मानकर वे श्रीमती से ब्याहे। आर्द्रकुमार को श्रीमती के साथ भोग भोगने से ऐक पुत्र हुआ। वह थोडा बड़ा हुआ तो टूटा-फूटा मधुरतापूर्वक बोलने लगा। अब पुत्र बड़ा हो गया देखकर आर्द्रकुमार ने दीक्षा लेने की भावना श्रीमती को बता दी। यह बात पुत्र को बताने के लिए बुद्धिमान श्रीमती रूई की पूनी से चरखा कातने लगी। पुत्र ने पूछा : 'हे मा! साधारण मनुष्यों की भाँति तूं यह कार्य क्यों कर रही है?' वह बोली, 'हे वत्स! तेरे पिता दीक्षा लेने जा रहे हैं। उनके जाने के पश्चात् पतिरहित मैं, इस तकुए का ही सहारा होगा मुझे।' बचपन की तोतली लेकिन मधुर वाणी में पुत्र बोला, 'माता! मैं मेरे पिता को बाँधकर पकड़ रखूगा, वे कैसे जा सकेंगे?' इस प्रकार कहकर बालक पिता के चरणों को तकुए के सूत से लपेटने लगा। और बोला, 'माँ! अब डरो मत, स्वस्थ हो जाओ, देखो मैंने पिता को बांध लिया है, बंधे हुए हाथी समान वे जायेंगे कैसे?' बालक की चेष्टा देखकर आर्द्रकुमार ने सोचा, 'अहो... इस बालक का स्नेहबंधन कैसा है जो मुझे बांध रखता है। उसके स्नेह से वश मैं शीघ्र दीक्षा जिन शासन के चमकते हीरे • ५२
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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