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________________ आर्द्रकुमारने अपने लोगों से एक जहाज तैयार करवाया। उसमें रत्न भरे और एक दिन भगवान आदिनाथ की मूर्तिवाला सन्दूक लेकर सबको चकमा देकर जहाज पर चढ़कर आर्य देश में आ गया। यहाँ आकर प्रभु प्रतिमा अभयकुमार को वापिस लौटा दी और धन सात्र क्षेत्र में खर्च करके स्वयं अपने तरीके से यतिलिंग ग्रहण किया। उस समय देवताओं ने उच्च स्वर में कहा, 'हे महासत्त्व! तूं अभी दीक्षा ग्रहण करना मत, क्योंकि तेरे कई भोग्य कर्म अभी भी बाकी हैं। उन्हें भुगतने के बाद ही दीक्षा लेना। देवों के ऐसे वचनों का अनादर करके आर्द्रकुमारने स्वयं अपने आप दीक्षा ग्रहण कर ली और तीव्रतापूर्ण व्रत पालते हुए विहार करने लगे। . विहार करते करते वे वसंतपुर नगर में पधारे। नगर के बाहर एक देवालय में समाधि अवस्था में कायोत्सर्ग में खड़े थे। इस नगरी में देवदत्त नामक एक बड़ा सेठ था । श्रीमती नामक उसे स्वरूपवान पुत्री थी। नगर की अन्य बालाओं के साथ पतिरमण नामक खेल खेलने देवालय में आईं, जहाँ आर्द्रकुमार समाधि अवस्था में खड़े थे। खेल खेल में बालिकाएँ बोली, 'सखियाँ ! सब अपने पसंद के वर चून लो।' इसलिए सर्व कन्याएँ अपनी अपनी रुचि अनुसार पेड़ के तनो को वर के रूप में पसंद किये। लेकिन श्रीमती ने तो कहा, 'हे सर्व सखियाँ! मैंने तो ये खड़े भट्टारक मुनि का वररूप में चयन किया है।' उस समय देवताओं ने आकाश में रहकर कहा : 'शाबाश, तूंने सही' चयन किया है। इस प्रकार कहकर गर्जना करके देवों ने रत्नों की वृष्टि की।गर्जना से घबराकर श्रीमती मुनि के चरणों से लिपट पड़ी। इससे मुनि ने सोचा कि यहाँ थोडी देर ठहरने से भी मुझे व्रतरूपी वृक्ष के लिये तूफान जैसा मन को पसंद हो ऐसा उपसर्ग हुआ, यहाँ ज्यादा देर ठहरना योग्य नहीं है।' आर्द्रमुनि तुरंत वहाँ से विहार करके अन्यत्र चल दिये। रत्नों की वृष्टि हुई थी, वेरत्न लेने वहाँ का राजा राजपुरुषों के साथ आया तब देवालय में रत्नों के आसपास अनेक सर्प पड़े हुए थे। उस समय देवता ने आकाश में रहकर कहा : ''मैंने यह द्रव्य श्रीमती के ब्याह निमित्त दिया है, अन्य किसीका इस पर अधिकार नहीं है।" यह सुनकर राजा वापिस लौटा। श्रीमती के पिता ने उस द्रव्य को बटोरकर अलग रखा। ब्याह योग्य उम्र होते ही श्रीमती को वरने के लिये कई युवक वसंतपुर आये। उसके पिता ने योग्य वर का चयन कर लेने को कहा। श्रीमती बोली, 'पिताजी! मैं तो जैन मुनि को वर चूकी हूँ। वही मेरा दूल्हा है और देवताओं ने उसे वरने के लिये द्रव्य भी दिया है, वह द्रव्य आपने लिया है। आप भी उसमें संमत हुए जिन शासन के चमकते हीरे . ५१
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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