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________________ २७ -श्री आर्द्रकुमार समुद्र के मध्य में आर्द्रक नामक देश है । आर्द्रक उसका मुख्य नगर है । वहाँ आर्द्रक नामक राजा था। उसकी आर्द्रक रानी से आर्द्रकुमार नामक पुत्र हुआ। युवावस्था प्राप्त होते ही यथा रुचि सांसारिक भोग भोगने लगा। __आर्द्रक राजा और श्रेणिक राजा परम्परागत स्नेह से बंधे हुए थे। एक बार श्रेणिक राजा ने अपने मंत्री को कई उपहारों के साथ आर्द्रक राजा के पास भेजा। वे उपहार स्वीकार्य करके आर्द्रक राजा ने बंधु श्रेणिक की कुशलता पूछी। यह देखकर आर्द्रकुमार ने पूछा : 'हे पिताजी! यह मगधेश्वर कौन है जिनके साथ इतना अधिक स्नेह है?' तब राजा ने कहा, 'श्रेणिक नामक मगध के राजा हैं और हमारी कुल परम्परा से उनके साथ सम्बन्ध चला आ रहा है।' यह सुनकर वहाँ आये हुए मंत्रीश्वर को आर्द्रकुमार ने पूछा : 'इस मगधेश्वर का कोई गुणवान पुत्र है? अगर है तो मैं उसे मेरा मित्र बनाना चाहता हूँ। तब मंत्रीश्वर ने जवाब दिया कि हाँ, बुद्धि के भण्डार अभयकुमार उनके पुत्र है। - यह सुनकर बिदा होते मंत्रीश्वर को आर्द्रकुमार ने मूंगें और मुक्ताफल वगैरह अभयकुमार के लिए मैत्री के प्रतीकरूप भेजें। आर्द्रकुमार के इस मैत्रीपूर्ण बर्ताव से प्रसन्न होकर अभयकुमार ने सोचा, कोई श्रमणपने की विराधना के कारण यह आर्द्रक अनार्य देश में उत्पन्न हुआ है । उसके एक मित्र होने के नाते उसे धर्मी बनाना चाहिये। ऐसा सोचकर प्रभु आदिनाथ अहँत की एक प्रतिमा संदूक में रखकर एक दूत द्वारा आर्द्रकुमार को भेज दी और संदेशा भेजा कि इस संदूक को एकांत में खोलें। संदूक खुलते ही आर्द्रकुमार को श्री आदिनाथ की मनोहर, अप्रतिम प्रतिमा नज़र आई।कुछ क्षणों तक वह कुछ समझ न पाया। लेकिन सोचते सोचते - ऐसा मैंने पूर्व कहीं देखा है - यों चिंतन करते ही उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसमें उसने देखा कि इस भव से पूर्व तीसरे भव में वह मगधदेश के वसंतपुर गाँव में सामापिक नामक कणवी था। कर्माधीन धर्मविर्जित अनार्य देश में अब मैं उत्पन्न हुआ हूँ। मुझे प्रतिबोधित करनेवाले अभयकुमार वाकई मेरे बंधु और गुरु हैं। इससे पिता की आज्ञा लेकर मैं आर्यदेश जाऊँगा, जहाँ पर मेरा मित्र और गुरु है । लेकिन पिता ने आर्द्रकुमार को मगध जाने की छुट्टी न दी और आर्द्रकुमार किसी भी प्रकार से भाग खड़ा न हो इसलिये सामंतो को सख्त बंदोबस्त रखने का हुक्म दिया। जिन शासन के चमकते हीरे • ५०'
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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