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'हे भगवान् ! प्रसन्नचंद्र मुनि इस समय कालधर्म प्राप्त करे तो कहाँ जाये?' भगवंत ने कहा : 'सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त करें।' श्रेणिक ने पूछा : 'भगवंत! आप ने क्षण भर के अंतर में दो अलग बात क्यों नहीं?' प्रभु ने कहा : 'ध्यान भेद के कारण मुनि की स्थिति दो प्रकार की हो गई इसलिये मैंने वैसा कहा। दुर्मुख की वाणी सुनकर प्रसन्नचन्द्र मुनि क्रोधित हुए थे और कोपित होकर अपने मंत्री वगैरह से मन ही मन युद्ध कर रहे थे। उस समय आपने वंदना की, उस समय वे नर्क के योग्य थे। उस समय से आपके यहाँ आने के दौरान उन्होंने मन में सोचा कि अब मेरे सभी आयुध समाप्त हो चुके हैं। मस्तिष्क पर रखे सिरस्राण से शत्रु को मार गिराऊँ - ऐसा मानकर सिर पर हाथ रखा। सिर पर लोच करा हुआ जानकर 'मैं व्रतधारी हूँ' ऐसा ख्याल आ गया। अहो हो! मैंने क्या कर डाला? इस प्रकार अपनी आत्मा को कोसने लगे। उसका आलोचना प्रतिक्रमण करके पुनः वे प्रशस्त ध्यान में स्थिर हुए हैं। आपके दूसरे प्रश्न के समय वे सर्वार्थ सिद्धि के योग्य हो गये हैं।' इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था तब प्रसन्नचन्द्र मुनि के समीप देव दुंदुभि वगैरह बजते सुनाई दिये। सुनकर श्रेणिक ने प्रभु को पूछा : 'स्वामी! यह क्या हुआ?' प्रभु बोले : 'ध्यान में स्थिर प्रसन्नचन्द्र मुनि को केवलज्ञान हुआ है और देवता केवलज्ञान की महिमा का उत्सव मना रहे हैं। अंतिम घड़ी पर क्षपक श्रेणी में पहुँचते ही प्रसन्नचन्द्र राजऋषि केवलज्ञानी बने हैं।
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बधाई दीनानाथ की बधाई बजती हैं, मेरे नाथ की बधाई बजती हैं। शहनाई सूर नौबत बजती है। मोर धनन धन गाजते हैं......मेरे नाथ की...... इन्द्रादि मिलकर मंगल गाये
मोतियों से चौक सजाते हैं......मेरे नाथ की...... : सेवक प्रभुजी क्या अरज करता है,
चरणा को सेवा प्यारी लगती है......मेरे नाथ की...
जिन शासन के चमकते हीरे . ४२