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________________ २४ - श्री त्रिपृष्ट वासुदेव त्रिपृष्ट वासुदेव अंत:पुर की स्त्रीयों के साथ सुखपूर्वक विलास करते थे। एक दिन कई गवैये आये। विविध रागों से गान करके उन्होंने त्रिपृष्ट वासुदेव का हृदय हर लिया। रात्रि के समय ये गवैये अपना मधुर गान गा रहे थे। श्री त्रिपृष्ट वासुदेव ने अपने शय्यापालक को आज्ञा दी, 'जब मुझे निद्रा आ जाय तब गवैयो का गान बंद करवा कर उन्हें बिदा कर देना।' थोड़ी देर बाद त्रिपृष्ट वासुदेव के नेत्र में निद्रा आ गई। संगीत सुनने की लालसा में शय्यापालक ने संगीत बंद कराया नहीं। इस प्रकार रात्रि का कुछ समय गुजर गया। त्रिपृष्ट वासुदेव की निद्रा टूट गई। उस समय गायकों का गान चालू था, वे सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने शय्यापालक को पूछा : 'इन गवैयों को अभी तक क्यों बिदा नहीं किया?' शय्यापालक ने कहा, 'हे प्रभु! उनके गायन से मेरा हृदय अक्षिप्त सा हो गया था, जिससे मैं इन गायकों को बिदा न कर सका, आप के हुक्म का भी विस्मरण हो गया।' यह सुनते ही वासुदेव को कोप उत्पन्न हुआ, पर उस समय छुपा रखा। प्रातःकाल होते ही वे जब सिंहासन पर आरूढ हुये । तब रात्रि का वृत्तांत याद करके शय्यापालक को बुलवाया। वासुदेव ने सेवकों को आज्ञा दी, 'गायन की प्रीतिवाले इस पुरुष के कान में गर्म सीसा और तांबा डालो, क्योंकि उसके कान का दोष हैं। उन्होंने शय्यापालक को एकांत में ले जाकर उसके कान में अतिशय गर्म किया हुआ सीसा डाला। भयंकर वेदना से शय्यापालक शीघ्र ही मरण शरण हो गया । वासुदेव ने घोर अनिष्टकारी अशातापिडाकारी कर्म बांधा। ऐसे कईं पापकर्मों और क्रूर अध्यवसाय से समकित रूप आभूषण का नाश करनेवाला त्रिपृष्ट वासुदेव नारकी का पाप बांधकर, आयुष्य पूर्ण होते ही सातवें नर्क की भूमि में गया । इस त्रिपृष्ट वासुदेव की आत्मा काल धर्मानुसार त्रिशला की कोख से पैदा हुए और चोवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी हुए और शय्यापालक जीव इस काल में अहीर बना। एक दिन प्रभु महावीर काउसग्ग ध्यान लगाकर खड़े थे तब यह अहीर अपने बैलों को वहाँ छोड़कर गायें दुहने गया। बैल चरते चरते कहीं दूर चले गये । अहीर वापिस लौटा, अपने बैलों को वहाँ न देखकर प्रभु को पूछा : 'अरे देवार्य! मेरे बैल कहाँ गये? तूं क्यों बोलता जिन शासन के चमकते हीरे ४३ -
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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