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२३ -श्री प्रसन्नचंद्र राजऋषि
पोतनपुर नगर के राजा प्रसन्नचंद्र... प्रभु महावीर पोतनपुर पधारे हैं और मनोरम नामक उद्यान में रूके हैं - जानकर राजा प्रभु की वंदना के लिए पधारे और मोह का नाश करनेवाली प्रभु की देशना सुनी। संसार से उद्वेग पाया और अपने बालकुमार को राज्यसिंहासन पर बिठाकर उन्होंने प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। प्रसन्नचंद्र राजर्षि क्रमशः सूत्रार्थ के पुरोगामी हुए। प्रभु विहार करते करते राजगृह नगरी पधारे। प्रभु के दर्शनार्थ श्रेणिक राजा पुत्र-परिवार तथा हाथी की सवारी एवं घोडों वगैरह विविध दलो-कक्षाओं के साथ निकले। उसकी सेना में सबसे आगे सुमुख एवं दुर्मुख नामक मिथ्या दृष्टि सेनानी चल रहे थे। वे परस्पर विविध वार्ताएँ करते चले जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने प्रसन्नचंद्र मुनि को एक पाँव पर खड़े होकर, ऊँचे हाथ रखकर तपस्या करते देखा। उनको देखकर सुमुख बोला, 'अहोहो! ऐसे कठिन तपस्या करनेवाले मुनि को स्वर्ग-मोक्ष भी दुर्लभ नहीं है।' यह सुनकर दुर्मुख बोला, 'अहो! यह तो पोतनपुर का राजा प्रसन्नचंद्र है। बड़ी गाड़ी में बछड़े को जोडे वैसे ही राजाने राज्य भार अपने बालकुमार पर छोडा है, उसे क्या धर्मी कहेंगे? इसके मंत्री चंपानगरी के राजा दधीवाहन से मिलकर राजकुमार को राज्य पर से भ्रष्ट करेंगे, इसलिए इस राजा ने उलटा अधर्म ही किया है।' इस प्रकार के वचन ध्यानस्थ मुनि प्रसन्नचंद्र ने सुने और मन ही मन सोच-विचार करने लगे, 'अहो! मेरे अकृतज्ञ मंत्रियों को धिक्कार है, वे मेरे पुत्र के साथ ऐसा भेदभाव रखते हैं? यदि इस समय मैं राज्य संभाल रहा होता तो उन्हें कड़ी सजा देता।' संकल्प विकल्प से दु:खी राजर्षी अपने व्रत को भूलकर मन ही मन मंत्रियों से युद्ध करने लगे। आगे बढ़ते हुए श्रेणिक महाराज अपने रिसाले के साथ प्रभु के पास पधारे । वंदना करके प्रभु को पूछा : मार्ग में प्रसन्नचन्द्र राजऋषि की ध्यानावस्था में मैंने उनकी वंदना की है, उस स्थिति में वे मृत्यु प्राप्त करें तो कौनसी गति को जायेंगे?' प्रभु बोले, 'सातवे नर्क जायेंगे?' यह सुनकर श्रेणिक राजा विचार में पड़े, 'साधु को नरकगमन! हो नहीं सकता, प्रभु का कहना मुझसे बराबर सुनाई दिया नहीं होगा। थोड़ी देर के बाद श्रेणिक राजा ने पुनः पूछा :
जिन शासन के चमकते हीरे • ४१