SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -श्री उदयन मंत्री एक बार श्री कुमारपाल राजा ने सोरठ देश के राजा समरसेन को जीतने के लिये - अपने मंत्री उदयन को भेजा । पालिताणा पहुँचने पर तलहटी के दर्शन करके श्री ऋषभदेव भगवान की वंदना करने की इच्छा होने से वह अन्य सैनिकों को आगे बढ़ने का कहकर वह शत्रुजय पर्वत पर चढ़ा । दर्शन वंदन करके तीसरी-निसीही कहकर चैत्यवंदन करने वह बैठा। __ . चैत्यवंदन करते हुए उसकी नज़र के समक्ष एक चूहा दीये की जलती बत्ती लेकर अपने बील की ओर दौडता देखा। मंदिर के पूजारियों ने दौड़कर चूहे से बत्ती छुडवाकर बुझा दी। यह सब देखकर मंत्री ने मन से सोचा - मंदिर तो काष्ठ का है । काष्ठ के स्तंभ, छत बगैरह होने के कारण कोई बार ऐसी घटना से आग लगने का संभव हो सकता है। ___राज्य के राजा तथा समृद्ध व्यापारी काष्ठ मंदिर को पत्थर का बनाकर जीर्ण चैत्य को नूतन क्यों न बनाये? ऐसा वे न करें तो मुझे इस मंदिर का जीर्णोद्धार करना चाहिये। ऐसी भावना से जहाँ तक जीर्णोद्धार न हो तब तक ब्रह्मचर्य, एकासना, पृथ्वी पर शयन और तांबूल का त्याग आदि अभिग्रह प्रभु समक्ष ग्रहण किये। और सिद्धगिरि पर से उतरकर प्रयाण करते हुए अपने सैनिकों के साथ हो गये।। समरसेन राजा के साथ युद्ध होने पर अपना सैन्य भागने के कारण उदयन मंत्री संग्राम में उतरकर शत्रु सैन्य को घायल करने लगे।खुद शत्रु के बाणों से बड़े घायल हुए पर अपने बाण से समरराजा पर विजय पायी। इस कारण शत्रु सैनिक भाग खड़े हुए और उस देश में अपने राजा कुमारपाल की अहिंसा की आज्ञाएँ देकर मंत्री स्वदेश की ओर लौटे। . मार्ग में शत्रु के प्रहार की पीडा से उदयन मंत्री की आँखों में अंधेरा छा जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पडे और करुण स्वर में रोने लगे। सामंतो ने उन पर जल छिड़का और अपने वस्त्रों से पवन डालकर, कुछ शुद्धि में लाकर उनको पूछा, 'आपको कुछ कहना है?' तब उदयन मंत्री ने करुणता से कहा, 'मेरे मन में चार शल्य हैं।' छोटे पुत्र अंबड को सेनापति पद दिलाना, शत्रुजय गिरि पर पत्थरमय प्रसाद बनाना, गिरनार पर्वत पर चढने के लिए नयी सिढियाँ बनवानी और अंत समय पर मुझे कोई मुनि महाराजा पुण्य सुनाकर समाधिचरण कराये। जिन शासन के चमकते हीरे • ३०३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy