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विशाखानंदी को कोप चढ़ा। इतन में विश्वभूति मुनि एक गाय के साथ टकराये और गिर पड़े। यह देखकर 'कैथ फलों को तोडनेवाला तेरा बल कहाँ गया?' ऐसा कहकर विशाखानंदी हँस पडा । यह सुनकर विश्वभूति को गुस्सा आया । अपना बल दिखाने के लिये उन्होंने गाय को सिंगों से पकड़ा और आकाश में घुमाया। उछाल कर वापस पकड भी ली। तत्पश्चात् ऐसा नियाणा बांधा कि ‘इस उग्र तपस्या के प्रभाव से मैं भवांतर में बड़ा पराक्रमी और बलवान् बनूं। उसके बाद कोटि वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके पूर्व किये हुए 'नियाणा' की आलोचना किये बिना मृत्यु पाकर वह विश्वभूति महाशुक्र देवलोक में उत्कृष्ट आयुष्यवाला देवता बना।
तत्पश्चात् त्रिपृष्ठ वासुदेव नामक भव में इस विश्वभूति के जीवको अतुल और अपूर्व शक्ति मिली परंतु साधूता नहीं मिली। उस शक्ति उनकी आत्मा को पतन के पथ पर चलाया। मरकर वे नर्क में गये । ये सब उनकी आत्मा मरीचि, विश्वभूति, त्रिपृष्ठ और श्री महावीर एक ही आत्मा के अलग अलग भव हैं इससे पक्का ज्ञात होता है कि करे हुए पापकर्म किसीको छोड़ते नहीं है ।
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बिखरे मोती
ज्ञान वह है जिसमें शोक व हर्ष न हो।
• अहिंसा अव्यवहार्य नहीं बल्कि वह जीवन के हर पहलु
में
व्यवहार्य है।
वाणी का मीठा प्याला, नरक को स्वर्ग बना देता है।
• वाणी के मिठास से बढकर दुनिया में कोई वस्तु मीठी नहीं ।
जिन शासन के चमकते हीरे • २९९