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________________ ०० -श्री कामदेव श्रावक ___ चम्पा नगरी में कामदेव नामक बड़ा गृहस्थ रहता था महाधनिक होने के कारण उसने छः कोटि द्रव्य पृथ्वी में गाढा था। छ: कोटि द्रव्य व्यापार में लगाया था और छः कोटि द्रव्य घर, गृहस्थी और वस्त्र आभूषण आदि में लगाया था। उसके दस दस हजार गायोंवाले छः गोकुल थे। एक बार श्री महावीर स्वामी उस नगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य में पधारे। वहाँ श्री जिनेश्वर की वंदना के लिए नगरजन जाते थे। यह देखकर कामदेव भी गया। वहाँ श्री वीरप्रभु को प्रणाम करके उनकी देशना सुनी। इससे कामदेव ने प्रतिबोध पाया और आनन्द श्रावक की भाँति उस समय श्रावक धर्म ग्रहण किया। पश्चात् अपने घर आकर उल्लासपूर्वक स्वयं को धर्म की प्राप्ति होने का वृत्तांत अपनीपली को कहा। यह सुनकर भी बड़ी समृद्धिपूर्वक प्रभु के पास जाकर श्राविक धर्म ग्रहण किया। निरंतर उत्तम प्रकार से श्रावक धर्म का प्रति पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये। पन्द्रहवें वर्ष में एक बार मध्यरात्रि को धर्म जागरिका के वक्त जागते हुए कामदेव को विचार आया कि 'घर का समग्र कारोबार पुत्रों पर डालकर अब मैं श्रावक की बारह महा प्रतिज्ञाएँ वहन करूं।' प्रात:काल उठकर अपने पुत्रों को घर का सर्व कारोबार सौंपकार स्वयं पौषधशाला में रहकर दर्भ के संथारे पर बैठकर श्री जिनेश्वर का ध्यान धरने लगा। एक रात्रि को कामदेव ध्यान में बैठा था, उस समय सौधर्मेन्द्र ने अपनी सभा में कामदेव की प्रशंसा की। उस पर श्रद्धा न रखकर कोई एक देव कामदेव की परीक्षा करने आया। वह देव दैवी शक्ति से कई भयंकर रूप दिखाकर उसे डराने लगा और बोला कि तूं धर्म को छोड़ दे नहीं तो तीक्ष्ण खड्ग के प्रहार से तूझे बेमौत मार दूंगा। जिससे तूं आर्तध्यान से पीडित होकर अनंत दुर्गति का दुःख पायेगा।' इस प्रकार उसने बार बार कहा परंतु उस श्रेष्ठीने थोडा सा भी भय न पाया तब उस देव ने क्रोध से उस पर खड्ग के प्रहार किये, फिर भी श्रेष्ठी ने क्षोभ न पाया। तब उस देव ने भयानक हस्ती का रूप लिया और बोला, 'हे दंभ के सागर! इस सूंढ से तुझे आकाश में उछालकर जब जिन शासन के चमकते हीरे • ३००
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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