SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'शैवधर्म अच्छा है परंतु उसमें हिंसा का आचरण होता है, जब कि जैन धर्म अहिंसा का उपदेश देता है इसलिये मैंने उस धर्म को स्वीकारा है। 'कुमारपाल के पूर्वज वगैरह शैवधर्म का पालन करते थे और उनको प्रत्यक्ष दिखाने के लिये देवबोधि ने मंत्रबल से उसके पूर्वज मूलराज वगैरह को हाजिर किया। कुमारपाल ने उन सबको प्रणाम किया। तत्पश्चात् देवबोधि ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को बुलाया। यह कुमारपाल आश्चर्यचकित हो गया। देवों ने सब छोड़कर उनकी उपासना करने के लिये कुमार को कहा। और थोड़ी देर में ये देव तथा मूलराज वगैरह अदृश्य हो गये। कुमारपाल सोच में पड़ा। इसमें सत्य क्या? एक तरफ देवपत्तन के सोमनाथ के वचन, दूसरी तरफ देवबोधि ने बताये देवों के वचन! उसका सिर घूमने लगा। इस पूरी घटना के दौरान महामंत्री उदयन का पुत्र वाग्भट मंत्री कुमारपाल के साथ था। उसने श्रीहेमचन्द्राचार्य के पास जाकर सब हकीकत बतायी और शंका व्यक्त की, 'कुमारपाल शायद जैनधर्म छोड दे।' हेमचन्द्राचार्य ने वाग्भट्ट को थोड़ी सी भी चिंता न करने के लिये कहा, और दूसरे दिन व्याख्यान के समय कुमारपाल को लेकर आने को कहा और बताया, 'कल व्याख्यान के समय ऐसा चमत्कार देखने मिलेगा कि उस योगी के दिखाये हुए चमत्कार मामूली लगेंगे। दूसरे दिन व्याख्यान चल रहा है, राजा कुमारपाल, वाग्भट्ट और अनेक स्त्री पुरुष उपदेश सुनने में लीन बने हैं। और... आहा! एक के बाद एक पाट ऐसी सात पाट जिस पर गुरुदेव बैठे थे वह वहां से खिसक गयी। आचार्य बिलकुल ऊँचे बैठे हुए लोगों को दिखे, और व्याख्यान की वाग्धारा चालू रही। राजा कुमारपाल की आँखें यह देखकर फैल गयी।वे बोल उठे, अद्भुत-अद्भुत! योगशक्ति के दर्शन कुमारपाल को प्रत्यक्ष हुए।' व्याख्यान के बाद श्री हेमचन्द्राचार्य ने कहा, 'चलो मेरे साथ सामनेवाले कमरे में।' श्री गुरुदेव, राजा तथा वाग्भट्ट तीनों कमरे में गये। कमरा बंद किया। गुरुदेव एक आसन पर बैठे, आँखे बंद की और ध्यान लगाया। कमरा प्रकाश से भर गया। ___ कुमारपाल तथा वाग्भट्ट ने प्रत्यक्ष ऋषभदेव से महावीर स्वामी तक के चौबीस तीर्थंकर प्रत्यक्ष समवसरण में बैठे हुए देखे। .. तीर्थंकर उपदेश दे रहे थे। कुमारपाल ध्यान से सुन रहा था। 'कुमारपाल! जिन शासन के चमकते हीरे . २६४
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy