SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर दिया। गर्भद्वार बंद है। आचार्यश्री और कुमारपाल दोनों अंदर सोमनाथ महादेव सम्मुख खडे हैं । आचार्य ध्यानस्थ है और कुमारपाल धूपदानी में धूप डाल रहे हैं। धूप के धुएँ से गर्भगृह सम्पूर्ण भर चुका है, अंधेरा छा गया, घी के दीपक बुझ गये। धीरे धीरे शंकर भगवान के लिंग में से प्रकाश फूटने लगा। प्रकाश बढ़ता गया। उसमें से एक दिव्य आकृति प्रकट हुई। सुवर्ण जैसी उज्ज्वल काया, सिर पर जटा। जटा में से बहती गंगा और उपर चन्द्रकला। आहा! राजा ने अपना हाथ फिराकर निर्णय लिया कि यही देवता हैं और जमीन पर अपने पांच अंगो को छुआकर (पंचाग प्रणाम) किये और प्रार्थना की। ____'हे जगदीश! आपके दर्शन से मैं पावन हुआ हूँ। मेरे इस उपकारी गुरुदेव के ध्यान से आपने मुझे दर्शन दिये हैं। मेरी आत्मा हर्ष से उछल रही है।' भगवान सोमनाथ की गंभीर ध्वनि मंदिर में गूंज उठी : 'कुमारपाल! मोक्ष देनेवाले धर्म की कामना हो तो साक्षात् परब्रह्म जैसे सूरीश्वर की सेवा कर । सर्व देवों के अवतार रूप, सर्वशास्त्रों के पारगामी, तीनों काल के स्वरूपों के ज्ञाता ऐसे हेमचन्द्रसूरी की हरेक आज्ञा का पालन करना, जिससे तेरी सर्व मनोकामना फलीभूत होगी।' इतना कहकर शंकर स्वप्न की भाँति अदृश्य हो गये। राजा आनंदविभोर हो गये। उन्होंने गुरुदेव को कहा, 'आपको तो ईश्वर वश है। आप ही मेरे देव हो। आप ही मेरे तात और मात हो । मेरे परम उद्धारक आप हो।' राजा हेमचन्द्राचार्य के चरणों में गिर पड़ा। यात्रा सफल हुई सब आनंदपूर्वक पाटण पधारे। देवबोधि नामक एक संन्यासी पाटण में आये और लोगों को चमत्कार दिखाने लगे। चमत्कार देखकर लोगों को देवबोधि श्रेष्ठ और अद्भुत कलाकार लगा। पाटण में जगह जगह बातें होने लगी। कुमारपाल को भी इस चमत्कारिक संन्यासी के चमत्कार देखने की इच्छा हुई।कुमारपाल ने देवबोधि को राजसभा में बुलवाया। देवबोधि निपट नन्हें बालकों द्वारा पालकी उठवाकर, अंदर बैठकर राजसभा में आया। राजा ने योग्य सत्कार किया। देवबोधि ने कुमारपाल को पूछा, 'अपना शैव धर्म छोड़कर इस जैन धर्म का स्वीकार क्यों किया है?' महाराजा ने बताया कि 'जिन शासन के चमकते हीरे . २६३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy