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________________ जैसा था वैसा रखकर हर्ष से अपने घर गई। थोड़ी देर के बाद दामन्नक भी जागृत हुआ तो गाँव में जाकर उसने श्रेष्ठी पुत्र को वह कागज दिया, वह भी पत्र पढकर आनंदित हुआ, और उसी समय बडे ठाठ-बाठ-आडम्बर से अपनी बहन विषा का उसके साथ ब्याह कर दिया। दामन्नक उसके साथ सुख से विलास करने लगा। कई दिनों के बाद सागर श्रेष्ठी घर आया। उसे विषा के ब्याह की बात जानकर बड़ा खेद हुआ। उसने सोचा, 'अहो! मेरा सोचा हुआ कार्य उलटा हो गया और यह तो मेरा जवाँई बन गया, तो भी प्रपंच से उसे मार डालूं। पुत्री विधवा भले हो जाये परंतु शत्रु की वृद्धि हो वह ठीक नहीं।' - इस प्रकार विचार करके चाण्डाल के पास जाकर कहा, 'अरे तूने मुझे उस दिन ऊँगली की निशानी देकर ठगा था वह ठीक नहीं किया था' चाण्डाल बोला, 'हे सेठजी! अब उसे दिखाओ. मै जरूर मार डालूंगा।' तत्पश्चात् श्रेष्ठी उसे मारने के लिये मातृकादेवी के देहरे का संकेत देकर घर आये और दामन्नक को कहा, 'हे वत्स! तू आज शाम को विषा के साथ मातृका देवी के प्रासाद में पूजा करने जाना जिससे देवी की कृपा से तुम दोनों का कुशल हो।' सांय काल देवी के मंदिर में दोनो जाने वाले थे लेकिन संयोग से उनका साला उनसे पहले मंदिर पहुंचा। प्रथम से ही श्रेष्ठी का संकेत होने से उस चाण्डाल ने देहरे में मानो देवी का बलिदान देता न हो वैसे उसे मार डाला। पुत्र का मरण सुनकर सागर श्रेष्ठी की छाती फट गयी और उसकी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् राजा ने दामन्नक को उसके घर का स्वामी बनाया। एक बार रात्रि के अंतिम प्रहर में भाटचारण के मुख से दामन्नक ने एक गाथा सुनी, जिसका भावार्थ ऐसा था कि, 'निरपराधी को अनर्थ में डालने के लिये अनेक प्रयत्न किये तो वह भी उलटे ही उसे गुणकारी बनते है। दुःख के लिये किये उपाय सुख देनेवाले होते हैं क्योंकि देव ही जिसका पक्ष करते हैं उन्हें दूसरा क्या कर सके?' यह गाथा भाट तीन बार बोला, इसलिये दामन्नक ने तीन लाख द्रव्य दिया। राजा ने यह सब देने का कारण पूछा, तब दामन्नक ने सर्व पूर्व वृत्तांत कहा। एक बार ज्ञानी गुरु मिलने पर उसके अपने पूर्व भव में किये प्रत्याख्यान का फल जानकर जाति स्मरण होने से दामन्नक विशेष रूप से धर्म का रागी बना। कालानुसार मृत्यु पाकर देवलोक का सुख प्राप्त किया। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर क्रमानुसार सिद्धि पद की पायेगा। जिन शासन के चमकते हीरे . २४३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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