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________________ है, तो प्रातः जल्दी जाकर प्रथम आशीर्वाद राजा को दो, जिससे दो मासे सोने से कुछ दिन गुजारा चल जायेगा । कपिल ने सवेरे जल्दी उठकर राजा के पास सर्वप्रथम पहुँचने का प्रयत्न किया लेकिन लगातार आठ दिन तक इस प्रकार करने पर भी उससे पहले कोई और पहुँच जाता था इसलिये राजा को प्रथम उसके आशीर्वाद न मिलते और सोना प्राप्त न होता। सोना न मिला, राजमहल के पासवाले मैदान में सोकर प्रातः राजा के पास प्रथम पहुँचने के विचार से एक रात्रि को मैदान में सो गये ।अर्धरात्रि में चन्द्रमा के प्रकाश को देखकर सुबह हो गई समझकरराजमहल की ओर वे दौड़ने लगे।उनको दौडता देखकर रक्षपाल ने उन्हें चोर समझकर पकड़ लिया और सवेरे राजा के समक्ष पेश किया। कपिल ने जो बात थी वह प्रस्तुत की। राजाजी ने उसका भोलापन जानकर उसे चोर न समझकर प्रसन्न होकर कुछ माँगने को कहा। क्या माँगना कपिल तय न कर सके। राजाजी ने उन्हें सामने के मैदान में बैठकर सोचकर माँगने का समय दिया। कपिल मैदान में बैठकर सोचने लगे, 'क्या मागू, कितना माँगू? दो मासासोना तो कितने दिन चलेगा, उसके बदले पाँच मुहर माँगनी, अरे! पाँच मुहर से कुछ पूरा नहीं होगा इसलिये पच्चीस मुहरे माँगनी! यो तृष्णा में डूबते गये। सो मुहर, हजार मुहर, दस हजार मुहर यों इच्छा बढ़ती गई। करोड़ मुहर माँगनी ऐसा सोचा परंतु उससे क्या होगा? इससे तो अच्छा राजा का आधा राज्य ही माँग लूँ।' ऐसा सोचते सोचा कि आधा राज्य माँगू तो भी राजा के पास आधा तो बचेगा ही इसलिये पूरा राज ही माँग लूं। लेकिन हलबली जीव होने से विचार बदलते गये। जो राजा देना चाह रहा है, उसका ही राज्य ले लेना क्या शोभा देगा? अरेरे... मैंने क्या सोचा? मुझे आधे राज्य की भी क्या जरूरत? अरे ! करोड़ स्वर्णमुद्रा मुझे क्या करनी? मुझे हजार की भी क्या जरूरत है? ऐसा सोचते सोचते आखिर मे दो मासे सोना ही लेने का विचार आया। ___मैं दो मासे भी क्यों लूं? मैं क्यों संतोष नहीं मानता? क्यों ऐसी तृष्णा करता हूँ? हे जीव! तूं विद्याभ्यास के लिये यहाँ आया था। विद्या लेने के बजाय विषयवासना में डूब गया। मैं बहुत भूला, संतोष मानकर निरुपाधिक सुख जैसा कुछ अन्य नहीं है। कहा जाता है कि ऐसा सोचते सोचते, उनके अनेक आवरणों का क्षय हुआ और विवेकपूर्वक विचारसमाधि में डूबते हुए वे बेजोड़ कक्षा पर पहुँचे और केवलज्ञान प्राप्त किया। जिन शासन के चमकते हीरे . १०
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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