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क्षमामूर्ति गजसुकुमाल
पिता वासुदेवजी, माता देवकीजी, भाई कृष्णजी तथा अनेक सामंत राजा वगैरह परिवार प्रेमभरी नजरों से गजसुकुमाल की प्रतीक्षा करते बैठे हैं। इतने में उन्हें मृगया से लौटते हुए देखकर सब हर्षित हो उठते हैं। कितना सन्मान ! कितना वैभव! है कहीं दुख का नामोनिशान भी?
२. गजसुकुमाल का विवाह तय हो चुका है, फिर भी भगवान श्री नेमिनाथ
के उपदेश से बैरागी बनकर दीक्षा लेते हैं। कितना भारी त्याग!
दीक्षा के पश्चात नेमिनाथ प्रभु की आज्ञा लेकर स्मशान में ध्यानस्थ रहते हैं। गजसुकुमाल के श्वसुर सौमिल ने क्रोधित होकर दामाद के मस्तिष्क पर मिट्टी की ताई में जलते अंगारे रखकर कहा, 'हे मुनि! समता से जो मार रहे हो वह जले नहीं और जो जले उसे मारो मत।' ऐसा कहकर खड़े रहे... जिससे अंगारे नीचे गिरने पर कोई वस्तु जल न जाय। .. सकल कर्मों का क्षय करके मुक्त हुए। प्रात:काल भगवान के पास आकर कृष्णजी भाई को न देखने पर पूछते हैं, 'भाई कहाँ है?' भगवान ने कहा, 'लौटने पर तुम्हें द्वार पर मिलेगा, उसकी सहाय से गजसुकुमाल ने मोक्ष पाया है।'
४.
कृष्णजी मुनिघातक को सजा देने शीघ्र ही लौटते हैं। नगर के द्वार पर ही कृष्णजी को आते देखकर हृदयगति रूकने से सौमिल की मृत्यु हो जाती है।
धन्य गजसुकुमाल