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-श्री दामन्नक
हस्तिनापुर में सुनंद नामक एक कुलपुत्र रहता था। उसे जिनदास नामक श्रेष्ठी के साथ मित्रता थी। वह श्रेष्ठी से हमेशां पच्चक्खान महिमा सुनता था। एक बार श्रेष्ठी उसे गुरु के पास ले गये। गुरु ने अनागत आदि प्रत्याख्यान का स्वरूप तथा फल का वर्णन किया। यह सूनकर सुनंदने मद्य और मांस नहीं खाने का पच्चकखान शुद्धभाव से ग्रहण किया। इसके बाद वहां कोई बड़ा अकाल पड़ा जिससे छठे आरे की भाँति सर्व लोक प्रायः मांस-भक्षण करनेवाला हो गया। सुनंद के स्वजन क्षुधा से अत्यंत पीड़ित होने लगे। इससे एक दिन बड़ा उपालंभ देकर उसे साले के साथ मछली लेने के लिए भेजा। सुनंद ने जल में जाल फेंका। परंतु जाल में फंसी हुई मछलियाँ देखकर उन्हें छोड़ देता था। यह देखकर उसके साले ने कहा : हे बहनोई। आप कोई मूण्डे के वाक्यरूपी जाल में फंसे हो, जिससे आपके स्त्री - पुत्रादिक को दुःख रूपी जाल में से किस प्रकार निकाल पाओगे? जान ली तुम्हारी दयालुता!' आदि व्यंग कहे तो भी उसने उस दिन एक भी मछली नहीं पकड़ी उस प्रकार दूसरे दिन भी एक भी मछली न पकडी और कहने लगा, 'मैं क्या करूं। किसी भी समय मछली पकड़ने का अभ्यास नहीं है।' यह सुनकर उसके स्वजन उसे सीखाने लगे परंतु उसकी निर्मल धर्मभावना टूटी नहीं। तीसरे दिन तालाब पर जाकर उसने जाल फेंका, इससे एक मछली का पंख टूटा। यह देखकर सुनंद अत्यंत शोकातुर बना। उसने स्वजनों को कहा, 'मैं कभी भी ऐसा हिंसा का काम नहीं करूंगा।' ऐसा कहकर प्रफुल्लित मन से उसने निरवशेष अनशन का पच्चक्खाना किया। अर्थात् आहार का त्याग किया। वहाँ से मरकर वह राजगृह नगर में मणिकार श्रेष्ठी के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। मातापिता ने उसका दामन्नक नाम रखा। वृद्धि पाते हुए रमानुसार वह आठ वर्ष का हुआ। तब महामारी के उपद्रव से उसके पूर्ण कुटुंब का नाश हुआ। उसके भय के कारण अपने घर से भाग गया। घूमते घूमते उसी नगर में सागरदत्त नामक श्रेष्ठी के घर पहुंचा और उसके घर नौकरी करके आजीविका कमाने लगा।
एक दिन कोई दो मुनि गोचरी के लिये उस सेठ के घर आये। उनमें बड़े साधू सामुद्रिक शास्त्र में निपुण थे, उन्होंने दामन्नक को देखकर दूसरे
जिन शासन के चमकते हीरे . २४१