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________________ नाम क्या है?' श्रीकांत ने कहा, 'मेरा नाम श्रीकांत है।' यह सुनकर श्रेणिक तथा अभयकुमार आश्चर्यचकित हो गये, कि 'चोर इस प्रकार सच बोलता नहीं है। इसलिये यह चोर लगता नहीं है।' तत्पश्चात् वे आगे चले। वापिस लौटते समय श्रीकान्त राजा के भण्डार में से संदूक लेकर जा रहा था। उसे दुबारा श्रेणिक व अभयकुमार मिले। उन्होंने पूछा, 'यह क्या लिया है?' श्रीकान्त ने कहा, 'राजा के भण्डार में से यह रत्न का सन्दूक लेकर घर जाता हूँ।' ऐसा वाक्य सुनकर वे राजमहल में गये। प्रात:काल भण्डारी भण्डार में चोरी हुई जानकर दूसरी अनेक चीजों की हेराफेरी करके चिल्लाया और कोतवाल को तिरस्कार के साथ कहा, 'भण्डार में चोरी हुई है।' इस बात की राजा को खबर की गयी सो उसने भण्डारी को बुलाकर कहा, 'कोश में से क्या क्या गया है?' भण्डारी ने कहा, 'रन के दस सन्दूक गये हैं।' तत्पश्चात् राजा ने मंत्री के सामने देखा और श्रीकान्त को बुलवाया और पूछा, 'रात्रि को तूने क्या क्या चोरी किया है?' श्रीकान्त ने देखा, रात्रि को दो मनुष्य मिले थे वे ही ये हैं तो उसने कहा : 'स्वामीन् ! आप भूल गये क्या? आपके सामने ही मैं मेरी आजीविका के लिये एक संदूक लेकर जा रहा था।'श्रेणिक राजा ने कहा, 'अरे चोर! तू मेरे पास भी सच बोलने में क्यों भय नहीं पाता हैं?' श्रीकान्त बोला, 'महाराज! प्राज्ञ पुरुषों को प्रमाद से भी असत्य नहीं बोलना चाहिये क्योंकि असत्य बोलने से प्रचण्ड पवन द्वारा गिरे वृक्ष की भाँति (सृकुत) भंग हो जाता है। और आप क्रोध पाओगे तो इस लोक के एक भव के सुख का नाश करोगे लेकिन सत्य व्रत का भंग करूंगा तो मुझे अनंत भव का दुःख प्राप्त होगा।' इस प्रकार के उसके वचन सुनकर राजा श्रेणिक ने उसे सजा दी, 'जिस प्रकार तू सत्य व्रत पालता है, उस प्रकार दूसरे व्रत भी पाल।' श्रीकांत ने उसे स्वीकारा, सो राजा ने पुराने भण्डारी को हटाकर उस पद पर श्रीकान्त को रखा। क्रमानुसार वह महावीर स्वामी के शासन का श्रावक बना। इस प्रकार श्रीकान्त चोर ने जिनदास श्रावक के वाक्य की दृढता से सत्य वचन रूप दूसरा व्रत लिया और पालन किया तो उसने इस लोक में ही इष्टफल प्राप्त किया। इस कारण भव्य प्राणियों को यह सत्यव्रत जरूर ग्रहण करना चाहिये। - - जिन शासन के चमकते हीरे • २३१
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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