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________________ आपकी पटरानी द्रौपदी सभा में आकर पाँच सत्य बोले तो इस बेमौके पर भी आम्रवृक्ष फलेगा।' राजा ने बात मान ली, द्रौपदी को सभा में बुलाया। नारद ने सती को पूछा, 'हे सती! पाँच पति से संतोष पानेवाली आप सतीत्व, सम्बन्ध, शुद्धता, पति प्रेम एव मन में संतोष इन पाँच के बारे में जो सत्य हो वह कहें।' द्रौपदी असत्य से भय पाकर स्त्रियों की जो गुह्य बात थी वह सत्य - सत्य प्रकार से कहने लगी : 'हे मुनि!' रूपवान, शूरवीर और गुणी ऐसे मेरे पाँच पति हैं फिर भी कोई बार छठे में मन जाता हैं। हे नारद! जहाँ तक एकान्त, योग्य अवसर और कोई प्रार्थना करनेवाला मिलेगा नहीं तब तक ही स्त्रियों का सतीत्व हैं। स्वरूपवान पुरुष पिता, भ्राता या पुत्र हो तो भी उसे देखकर कच्चे पात्र में जल रीसता हो उस प्रकार स्त्रियों के गुप्तांग भीगते रहते हैं। हे नारद! जैसे वर्षा ऋतु का समय कष्टदायक है, यद्यपि आजिविका का कारण होने से सर्व को प्यारा लगता है, वैसे भरथार भरणपोषण करता है सो स्त्री को प्यारा लगता है। कोई प्रेम से प्यारा लगता नहीं हैं। सरिताओं से समुद्र तृप्त होता नहीं है और सर्व प्राणियों से यमराजा तृप्त नहीं होता, उस प्रकार पुरुषों से स्त्री तृप्त नहीं होती। हे नारद! स्त्री अग्नि के कुण्ड समान है, इससे उत्तम लोगों को स्त्रियों का संसर्ग छोड़ देना चाहिये। इस प्रकार द्रौपदी पांच सत्य बोली, उसमें प्रथम सत्य पर आम को अंकुर फूटे, दूसरे, सत्य पर पल्लव, तीसरे पर कोंपल और चौथे सत्य पर मंजरी और पाँचवें सत्य पर पक्के मधुर फल लग गये। यह देखकर सर्व सभासद प्रशंसा करने लगे। तत्पश्चात् आम्ररस से युधिष्ठिर ने सर्व मुनिओ को पारणा कराया। ___इस प्रकार सत्य वचन की महिमा का लोक में और शास्त्र में वर्णन किया गया हैं। इस कारण हे श्रीकांत श्रेष्ठ ! आप भी उस सत्य व्रत स्वीकारें।" ___अब श्रीकांत सेठ ने यह व्रत ग्रहण किया यद्यपि उनका चोरी का स्वभाव तो गया ही न था। एक बार श्रीकांत सेठ चोरी करने गये। वहाँ नगरचर्चा देखने निकले श्रेणिक राजा एवं अभयकुमार मिले। उन्होने श्रीकांत को पूछा, 'तू कौन है?' उसने कहा, 'मैं स्वयं हूँ।' दुबारा पूछा, 'तू कहाँ जाता है?' श्रीकांत ने कहा, 'राज भण्डार में चोरी करने जा रहा हूँ। पुनः पूछा कि तू कहाँ रहता है?' श्रीकांत ने कहा, 'अमुक मोहल्ले में।' फिर से पूछा, 'तुम्हारा जिन शासन के चमकते हीरे • २३०
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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