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-श्रीकान्त श्रेष्ठी
राजगृही नगरी में श्रीकांत नामक एक श्रेष्ठी था। वह दिन को व्यापार करता और रात्रि को चोरी करता था। एक बार बारह व्रत को धारण करनेवाला जिनदास नामक कोई श्रावक उस नगरी में आया। श्रीकान्त सेठ ने उसे भोजन के लिये आमंत्रण दिया। जिनदास ने कहा, 'जिसकी आजिविका का प्रकार मुझे ज्ञात न हो उसके घर में भोजन नहीं करता हूँ।' श्रीकान्त ने कहा, 'मैं शुद्ध व्यापार करता हूँ।' जिनदास ने कहा, 'आपके घरखर्च अनुसार आपका व्यापार दिखता नहीं है, तो जो सत्य हो वह कहो।' इसके बाद श्रीकान्त ने 'जिनदास परायी गुप्तता प्रकट करे ऐसा नहीं हैं' यों भरोसा पड़ने पर अपने व्यापार एवं चोरी की सत्य बात कही। तब जिनदास ने कहा, 'मैं आपके घर भोजन करूंगा नहीं क्योंकि मेरी बुद्धि भी तुम्हारे आहार से तुम्हारे जैसी हो जायेगी।' श्रीकान्त ने कहा, 'चोरी के त्याग बिना जो तुम कहोगे वह - धर्म मैं करूंगा।'
जिनदास ने कहा, 'तम प्रथम व्रत ग्रहण करो कि असत्य बोलना नहीं। असत्य के बारे में कहा हैं कि तराजू में एक तरफ असत्य का पाप रखो और दूसरी ओर सर्व पाप रखो तो भी असत्य का पाप अधिक होता है। यदि कोई शिखाधारी, मुंडी, जटाधारी, दिगम्बर या वल्कलधारी लम्बे समय तक तपस्या करे तो भी यदि मिथ्या बोले तो चाण्डाल से निंदा करने योग्य होता है। और असत्य तो अविश्वास का कारण हैऔर सत्य विश्वास का मूल कारण है तथा सत्य का अचित्य माहात्म्य है। लोगो में भी कहा जाता है कि द्रौपदी ने सत्य बोलकर आम्रवृक्ष को नवपल्लवित किया था। वह कहानी निम्न अनुसार है : हस्तिनापुर के राजा युधिष्ठिर के उद्यान में माघ मास में अठ्यासी हजार ऋषि एक बार पधारे। राजा ने उनको भोजन के लिये निमंत्रण दिया। तब वे बोले, 'हे राजन्!' यदि आप आम्ररस से भोजन कराए तो हम भोजन करेंगे, वरना नहीं खायेंगे।' यह सुनकर राजा युधिष्ठिर चिंता में पड़ गये कि, 'यह आम्र की ऋतु नहीं है तो आम्रफल मिलेंगे कैसे? इतने में आकस्मिक रूप | से नारद मुनि वहाँ आ पहुँचे । राजा की चिंता को जानकर उन्होंने कहा, 'यदि
जिन शासन के चमकते हीरे • २२९