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________________ तथा मवाद बह रहा था। मानो मूर्तिमान पाप समान लोढका कृति पुत्र को देखकर गणधर बाहर निकले और प्रभु के पास आकर पूछा : 'हे स्वामी! यह जीव कौन से कर्मकी नारकी जैसा दुःख भोगता हैं?' प्रभुबोले :"शत द्वार नामक नगर में धनपति नामक राजा को अक्खाई राठौर (राष्ट्रकूट) नामक एक सेवक था।वह पाँचसों गाँव का अधिपति था। उसको सातों व्यसन सेवन में बड़ी आसक्ति थी। वे भारी करों द्वारा लोगों को पीडा देता था। और कान, नेत्र वगैरह छेदकर लोगों को परेशान करता था। एक बार उसके शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हुए। वह इस प्रकार थे : श्वास, खाँसी, ज्वर, दाह, पेट में शूल, भगंदर, हरस, अजीर्ण, नेत्रभ्रम, मुँह पर सूजन, अन्न पर द्वेष, नेत्रपीड़ा खुजली, कर्म व्याधि, जलोदर एवं कोढ । कहा गया है कि : 'दुष्ट, दुर्जन, पापी, क्रूर, कर्म करनेवाले और अनाचार में प्रवर्तक को उसी भव में पाप फलते हैं । उस राठौर ने क्रोध व लोभ वश अनेक पाप किये। उसने अपना सब काल पाप करने में ही गँवाया। इस प्रकार 250 वर्ष का आयुष्य भोगकर, मरण पाकर प्रथम नरक में गया। वहाँ से निकलकर यहाँ मृगावती के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है । उसको मुख म होने से उसकी माता, राब बनाकर उसके शरीर पर डालती हैं। वह आहार रोग के छिद्रों द्वारा अंदर घुसकर मवाद व रुधिरपना पाकर बाहर निकलते है। ऐसे महा दुःख द्वारा बत्तीस वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके मृत्यु पाकर इसी भरतक्षेत्र में वैताढ्य समीप में सिंह बनेगा। वहाँ से मृत्यु पाकर दुबारो प्रथम नरक में जायेगा। वहाँ से सर्पलिया (नेवला) पन पाकर दूसरा नर्क में जायेगा। इस प्रकार एक भव के आंतरे पर सातवे नर्क तक जायेगा। फिर मच्छपना पायेगा। इसके बाद स्थलचर जीवों में आयेगा। तत्पश्चात् खेचतपक्षी की जाति में उत्पन्न होगा। तत्पश्चात् चतुरिंद्रिय, त्रिइन्द्रिय और द्विइन्द्रिय में आयेगा। इसके बाद पृथ्वी वगैरह पाँच पावर में भटकेगा। इस प्रकार चौरासी लाख योनि में बार बार भटक कर अकाम निर्जरा से लघुकर्मी होने से प्रतिष्ठानपुर एक श्रेष्ठि के घर पुत्र के रुप में जन्म लेगा। वहाँ साधू के संग से धर्म पालकर, मृत्यु पायेगा और देवता बनेगा। वहा से च्यव कर कालानुसार सिद्धिपद पायेगा। : इस प्रकार श्री वीर प्रभु ने गौतम स्वामी को लोढक का सम्बन्ध कहा। यह कथा पढ़कर सब महानुभाव चराचर जीवों की हिंसा करने स दूर रहे और निरंतर जीवदया - अहिंसा धर्म के आचरण में रत बने। जिन शासन के चमकते हीरे • २२८
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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