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________________ -चारुदत्त __ चम्पानगरी में भानू नामक श्रेष्ठी रहता था, उसे चारुदत्त नामक पुत्र था। युवा होते ही पिता ने योग्य कन्या के साथ उसका ब्याह किया, परन्तु किसी कारणवश वैराग्य आ जाने से विषय से विरक्त होकर वह अपनी स्त्री के पास जाता नहीं था। इससे उसके पिता ने चातुर्य सीखने के लिए उसे एक गणिका के घर भेजा। चारुदत्त धीरे धीरे उस गणिका पर आसक्त बना। अंत में उसने वेश्या के प्रेम में वश होकर अपना घर भी छोड़ दिया और बारह वर्ष तक वेश्या के घर रहा। एक बार उसके पिता भानू श्रेष्ठी का अंत समय आया सो उसने पुत्र को बुलाकर कहा, 'हे वत्स! तूने जन्म से लेकर मेरा वचन माना नहीं परंतु अब यह अंतिम एक वचन मानना। जब आपको संकट पडे तब नवकार मंत्र को याद करना।' इस प्रकार कहकर उसके पिता ने मृत्यु पायी। थोड़े दिन के बाद उसकी माता ने भी मृत्यु पायी। चारुदत्त ने दुर्व्यसन से मातापिता की सर्व लक्ष्मी उडा दी। चारुदत्त की स्त्री अपने पिता के घर चली गयी। ___ यहाँ जब धन खूट गया तब स्वार्थी वेश्या उसे घर में से निकाल दिया, इससे वह श्वसुर के घर आया। श्वसुर से कुछ धन लेकर वह जहाज में चढ़ा। देवयोग से जहाज टूटा। परंतु पुण्ययोग से लकड़ी का तख्ता पाकर कुशलक्षेम किनारे पर पहुँचा। वहाँ से अपने मामा के घर गया। वहाँ से द्रव्य लेकर कमाने के लिये पगदण्डी पर चल पड़ा। मार्ग में डकैती पड़ी और सर्वश्धन चोर ले गये। फिर से दुःखी होकर पृथ्वी पर भटकने लगा। इतने में कोई योगी मिला। उससे आधा आधा भाग ठहराकर रसपूपिका में से रस लेने मांची पर बिठाकर उसको कूपिका में उतारा। रस का कुंभ भरकर उपर आया तो कुंभ लेकर योगी ने मांची कूपिका में डाल दी.। चारुदत्त कुए में गिरा और योगी भाग गया। वहाँ कोई मृत्यु पाते पुरुष को उसने नवकार मंत्र सुनाया। तीसरे दिन चंदन गोह वहाँ रस पीने आयी। तीन दिन का क्षुधातुर चारुदत्त उसकी पूंछ पकड़कर बड़े कष्टपूर्वक बाहर निकला।आगे चलते हुए उसके मामा का पुत्र रुद्रदत्त उसे मिला । रुद्रदत्त ने कहा, 'दो भेड लेकर हम सुवर्णद्वीप चलें?' चारुदत्त के हाँ कहने पर दो भेड लेकर वे समुद्रकिनारे पर आये। बाद में रुद्रदत्त ने कहा, 'इन दो भेडों को मारकर उसके चमड़े के भीतर छुरी लेकर घुसेंगे। यहाँ भारड पक्षी आयेगा। वह मांस की बुद्धि से हमें उठाकर जिन शासन के चमकते हीरे • २२५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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