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मूल्य का था। यह देखकर राजा ने उन सर्व को पूछा, 'आप ने इस प्रकार तृष्टिदान दिया, उसका क्या कारण?' तब प्रथम क्षुल्लक बोला, 'हे राजा! मैं आपके छोटे भाई का पुत्र हूँ । छप्पन वर्ष तक संयम पालकर विषयवासना से राज्य लेने मैं आपके पास आया था। परंतु इस गाथा को सुनकर मैंने सोचा, जिंदगी का बड़ा भाग तो संयम धर्म के पालन में बीत गया। अब थोड़े समय के लिये प्रमाद करना मुझे उचित नहीं है।' ऐसी वैराग्य की बोधक गाथा भी मुझे साधकपन के लिए प्रेरणादायी बनी। प्रथम गुरु के साधक वचन भी मुझे बाधारूप बने थे। अब मैं चारित्रपालन में निश्चल होऊँगा। इस कारण मैंने मुझ पर बड़ा उपकार करनेवाली इस नर्तकी को सर्वप्रथम प्रीतिदान दिया। और हे राजा! यदि आपको मुझे अपने छोटे भाई के पुत्र रूप में पहचानने में संदेह हो तो उस संदेह को मिटानेवाली यह नाममुद्रा देखो।' वह देखकर राजा ने क्षुल्लककुमार को कहा, 'यह राज्य ग्रहण कर।' तब उसने कहा, 'राज्यादिक में आसक्ति उत्पन्न करनेवाला मोहरूपी चोर अब मेरे आत्मप्रदेश से दूर गया है ! इसलिये मैं राज्यादिक का क्या करूँ?'
तत्पश्चात् राजा ने अपने पुत्र के प्रीतिदान का कारण पूछा : इसलिए वह बोला, "हे पिता! राज्य के लोभ से आज-कल में आपको मैं विषादिक के प्रयोग से मार डालने के विचार में था, परंतु वह गाथा सुनकर मैंने सोचा, 'पिता वृद्ध हुए हैं, अब उनका आयुष्य बहुत कम शेष रहा होगा' सो उनको मारने नहीं। ऐसा मानकर मैं बड़ा खुश हुआ जिससे मैंने उसे प्रीतिदान दिया।" मंत्री को पूछने पर उसने कहा, 'हे स्वामी! शत्रुओं ने मुझे अपने पक्ष में मिला लिया था परंतु यह गाथा सुनकर मैंने ऐसे पापकर्म से निवृत्ति पा ली है।' तत्पश्चात् पति के विरहवाली स्त्री को पूछने पर वह बोली, 'हे प्रभु! आज-कल करते हुए पति के विरह में मैंने बारह वर्ष निर्गमन किये फिर भी वे तो आये नहीं, इस कारण पुरुष का विरह असह्य लगने से मैं आज परपुरुष का सेवन करके शील भंग करना चाह रही थी। यह गाथा सुनकर फिर से शील में दृढ बनी कि लम्बे काल से पालन किया हुआ शील थोड़े समय के लिये छोड़ना नहीं। इस कारण से प्रसन्न होकर मैंने नर्तकी को प्रीतिदान दिया है।' इसके बाद महावत को पूछने पर उसने कहा, 'मैं आपकी रानी से लुब्ध हुआ हूँ। आज आपका विनाश करना चाह रहा था। परंतु यह गाथा सुनकर वैसे पाप-विचार से निवृत्त हो चुका हूँ और इसी कारण मैंने तुष्टिदान दिया है।'
इस प्रकार सर्व के कारण सुनकर राजा वगैरह सर्व ने हर्ष पाया और उन सबने क्षुल्लककुमार के साथ जाकर दीक्षा ग्रहण की, अनुक्रम से उन्होंने स्वर्गादिक गति पायी।
इस दृष्टांत का सार यह है कि काल पक गया हो तब उपदेश वचन का असर होता है और काल न पका हो तब चाहे जितना कहो फिर भी असर नहीं होता।
जिन शासन के चमकते हीरे • २२४