SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तू मेरी गुरुनी के पास जाकर अनुमति ले।' तब उसने बड़ी साध्वी के पास जाकर अनुमति माँगी। साध्वी ने कहा, 'हमारे पास रहकर बारह वर्ष तक देशना सुन।' वह भी उसने कबूल किया और उनके पास रहकर अनेक सूत्र के अर्थ सूने, परंतु कुछ प्रतिबोध पाया नहीं। अवधि पूर्ण होने पर उनसे छुट्टी माँगी, 'तुम्हारे आग्रह से बड़ा कष्ट सहन करके भी रहा हूँ, इसलिये अब मैं जाऊंगा।' सुनकर उन्होंने कहा, 'अपने उपाध्यायजी गुरु हैं, उनकी छुट्टी लेने के बाद जा।' तब उसने उपाध्यायजी के पास जाकर छुट्टी माँगी । उपाध्याय ने कहा, 'बारह वर्ष तक हमारे पास रहकर देशना सुन।' उसने वह भी कबूल किया, परंतु बोध लगा नहीं। अवधि पूर्ण होने पर उपाध्याय से छुटी माँगी। तब उसने कहा कि 'गच्छ के अधिपति सरि के पास जाकर उनको तेरी इच्छा कह ।' उसने वैसा किया। आचार्य ने भी उसको अपने पास बारह वर्ष तक रहने के लिये कहा, इस कारण वहाँ रहकर वह अनेक प्रकार की देशना सुनने लगा। इस प्रकार माता वगैरह के आग्रह से अड़तालीस वर्षपर्यंत दीक्षा का पालन किया तो भी विषय से उसका चित्त पराडमुख नहीं हुआ। तत्पश्चात् अवधि पूर्ण होते ही उसने सूरि को कहा, 'हे स्वामी! मैं जाता हूँ।' यह सुनकर सावध कर्म होने से सरि तो मौन ही रहे । तब वह अपने आप वहाँ से चल दिया। जाते समय अपनी माता ने पूर्व अवस्था में (गृहस्थीपने में) लाया हुआ रत्नकंबल तथा मुद्रा (अंगूठी) उसको दी। वह लेकर और संयम के सर्व चिह्न छोड़कर क्रमानुसार साकेतपुरी राज्यसभा में संध्याकाल पर पहुँचा, वहाँ कोई नर्तकी नृत्य कर रही थी। उस नृत्य को देखने व्यग्र चित्तवाले सर्वसभासद उसे बार बार धन्यवाद देते थे, और वे नर्तकी की प्रशंसा करते थे।क्षुल्लक भी उसे देखकर उसमें तल्लीन बन गया।रात बहुत बीत गई, इतने में नर्तकी लम्बे समय से नाच कर रही होने कारण थकी होने से उसके नेत्र निद्रा से बोझिल हो गये। यह देखकर उसकी अक्का ने संगीत के आलाप में उसको कहा, 'सुटेगाईअं सुठेवाइअं सुटेनाच्चिअं साम सुंदरी।' ___ 'अणु पालिय दीहराइयं उसुमिणं तेमां प्रमायए।' भावार्थ : हे सुन्दरी! तूने अच्छा गान किया, बहुत अच्छा बजाया और अच्छी तरह नृत्य किया, इस प्रकार रात्रि अधिक व्यतीत कर दी अब थोड़े के लिए प्रमाद मत कर।' इस प्रकार अक्का का गीत सुनकर नर्तकी फिर से सावधान हो गई। यहाँ क्षुल्लककुमारने उस गाथा को सुनकर बोध पाया। उसने उस नर्तकी को अपना रत्नकम्बल इनाम में दिया, इसलिये राजपुत्र ने मणिजडित कुण्डल दिये। मंत्री ने मुद्रा रत्न दिये।लम्बे समय से पति के विरहवाली किसी सार्थवाह की स्त्री ने अपना हार दिया। और राजा के महावत ने अंकुश रत्न इनाम में दिया । हरेक इनाम लक्ष लक्ष जिन शासन के चमकते हीरे . २२३
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy