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________________ सुवर्णद्वीप में ले जायेगा । हम चमड़े को छेदकर बाहर निकलकर वहाँ से सुवर्ण लायेंगे।' चारुदत्त बोला, 'यह बात तो सही लेकिन हम से जीव वध कैसे होगा? इतने में तो रुद्रदत्त ने शस्त्र का वार करके एक भेड़ को मार डाला। उसके बाद वह दूसरे पर वार करने लगा तो चारुदत्त ने भेड़ को नवकार मंत्र सुनाया। भेड़ ने अनशनव्रत ग्रहण किया। तत्पश्चात् दोनों भेड़ की भाथी के चमड़े में घुसे । भारंड पक्षी वह लेकर उड़ा। मार्ग में दूसरा भारंड पक्षी सामने मिलने से उसके साथ युद्ध होने के कारण भारंड मुख में से चारुदत्तवाली भाथी गिर पड़ी। भाथी सहित चारुदत्त एक सरोवर में गिर पड़ा। उसमें से बाहर निकलकर वह स्थान स्थान पर भटकने लगा। क्रमानुसार एक चारण मुनि उनके देखने में आये। मुनि को प्रणाम करके वह उनके पास बैठा। मुनि बोले, 'अरे भद्र! इस अमानुष स्थल पर तू कहाँ से आया?' तो उन्होंने अपना सर्व दुख बताया। सो मुनिराज ने छठ्ठे व्रत का वर्णन किया । भी दिशा में अमुक योजन से आगे जाना नहीं। इस व्रत को पालने से उन उन दिशा में अनेक भावि पापों से बच सकते हैं । चारुदत्त ने प्रीति से दिग्विरति व्रत ग्रहण किया। इस अरसे में किसी देव ने आकर प्रथम चारुदत्त को और बाद में 'मुनि को वंदना की। उस समय कोई दो विद्याधर मुनि को वंदन करने आये थे । उनमें से एक ने चारुदत्त को शीश झुकाया। उन्होंने उस देव को पूछा : 'हे देव ! आपने साधू को छोड़कर प्रथम इस गृहस्थ को क्यों शीश झुकाया?' देव बोले, 'पूर्व पिप्पलाद नामक ब्रह्मर्षि कई लोगों को यज्ञ कराकर पापमय शास्त्रों का प्ररुपण करके नर्क में गये थे । वहाँ से निकलकर पिप्पलाद पाँच भव तक बकरा बने । पाँचवें भव में वे यज्ञ में ही होमे गये। छठ्ठा भव भी बकरा हुए; परंतु उस भव में इस चारुदत्त ने अनशन कराकर नवकार मंत्र सुनाया। उसकी महिमा से मृत्यु पाकर वह स्वर्ग में गया, वह देव मैं हूँ । अवधिज्ञान से पूर्वभव जानकर मेरे इस गुरु ने दिये हुए नवकारमंत्र की महिमा कहने और उपकारी गुरु की वंदना करने मैं यहाँ आया हूँ। पूर्व में मेरे पर किये उपकार से मैंने प्रथम वंदन उन्हें करके, बाद में साधू की वंदना की है।' इस प्रकार की हकीकत सुनकर चारुदत्त ने वैराग्य पाकर दीक्षा ग्रहण की और अनेक प्रकार की तपस्या करके वह स्वर्ग गया। जिस प्रकार चारुदत्त दिग्विरति व्रत लिया न होने से अनेक स्थान पर भटककर दुःखी हुआ, उस प्रकार जो प्राणी व्रत ग्रहण नहीं करेंगे तो दुखी होंगे, इससे भव्य प्राणियों को दिग्विरति व्रत अवश्य ग्रहण करना चाहिये । 1 सूचना : दिग्विरति व्रत याने निश्चित की हुई सीमा से बाहर न जाना । जिन शासन के चमकते हीरे • २२६
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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