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गुरु वगैरह को वंदना करके 'मैं मेरी आत्मा की निंदा करता हूँ' यों कहकर मुनि बोले, 'सर्व साधुओं में एक स्थूलभद्र ही अति दुष्कर कार्य को करनेवाले हैं, ऐसा गुरु ने जो कहा था वह योग्य ही है। पुष्पफल के रस को (स्वाद को), मद्य के रस को, माँस के रस को और स्त्रीविलास के रस को जानकर जो उनसे विरक्त होते हैं वे अति दुष्कर कार्य करनेवाले हैं। उनको मैं वंदन करता हूँ। और सत्त्व
गैर का मैं कहाँ एवं धीर बुद्धिवाले स्थूलभद्र कहाँ ! सरसव का कण कहाँ और हेमाद्रि पर्वत कहाँ ? खद्योत कहाँ और सूर्य कहाँ ? इस प्रकार कहकर वे मुनि आलोचना लेकर दुष्कर तप करने लगे ।
शा अपने स्थूलभद्र गुरु की निम्न प्रकार से स्तुति करने लगी : 'जिसने साड़े बारह करोड सुवर्णमुद्राएँ मेरे घर पर आकर मुझे दी थी उसने ही साधू अवस्था में मेरे यहाँ आकर मुझे बारह व्रत दियें ।'
'स्थूलभद्र ने धन का दान देकर जन्मपर्यंत अयाचक वृत्ति का मुझे सुख दिया, और व्रत का दान देकर अनंत भव का सुख मुझे दिया, इसलिये सर्वदा वे तो मुझे सुख देनेवाले ही बने।'
(२)
पाटलीपुत्र में अकाल पड़ा था जिससे संघ ने स्थूलभद्र वगैरह पांचसौं साधुओं को नेपाल देश में श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के पास भेजा। उन्हें सूरि पढ़ाने लगे। उनमें स्थूलभद्र के सिवा अन्य सर्व साधु सात-सात वाचना का अभ्यास करने में नहीं पहुँच सकने के कारण अपने अपने स्थान पर लौट गये। स्थूलभद्र मुनि महाबुद्धिमान थे। वे अकेले सूरि के पास रहे। उन्होंने आठ वर्ष में आठ पूर्व का अभ्यास किया। उन्हें एक बार अल्प वाचना से उद्वेग हुआ देखकर सूरि बोले, 'हे वत्स ! मेरा ध्यान पूर्ण होने आया है, इसके बाद मैं तुम्हारी इच्छा अनुसार वाचना दूंगा।' स्थूलभद्र ने पूछा, 'हे स्वामी ! अब मेरा कितना अभ्यास शेष है?' गुरु ने जवाब दिया, 'बिन्दु जितना तू सीखा है और समुद्र जितना बाकी है।' सूरि का महाप्राणायम ध्यान पूर्ण होते ही स्थूलभद्र दस पूर्व तक गुरुजी के पास पढ़े। इतने में स्थूलिभद्र की बहिने, यक्षा वगैरह साध्वियाँ उनको वंदन करने के लिये आयी । प्रथम सूरि को वंदन करके उन्होंने पूछा, 'हे प्रभु! स्थूलभद्र कहाँ है ?' सूरि ने कहा, 'छोटे देवकुल में है ।' ऐसा सुनकर साध्वियाँ उस तरफ चली। उन्हें आती देखकर स्थूलभद्र
जिन शासन के चमकते हीरे • २२०