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________________ तथा नृत्यादिक देखकर मुनि ने पल भर में ही क्षोभ पाया। अग्नि के पास रही लाख, घी और मोम की तरह मुनि कामावेश के आधीन होकर भोग की याचना करने लगे। तब कोशा ने उनको कहा, 'हे स्वामी! हम वेश्याएँ धन के बगैर इन्द्र का भी स्वीकार नहीं करती हैं ।' तब मुनि बोले, 'कामज्वर से पीड़ित हुए मुझको भोगसुख देकर प्रथम शांत कर। बाद में द्रव्य प्राप्त करने का स्थान भी तू जहाँ बतायेगी वहाँ मैं तूझे ला दूंगा।' यह सुनकर उसे बोध देने के लिये कोशा ने कहा, 'नेपाल देश का राजा नवीन साधू को लक्ष मूल्यवाला रत्नकंबल देता है, तो आप वह मेरे लिये ले आओ; बाद में अन्य बात करो । यह सुनकर बेअवसर वर्षाऋतु में ही मुनि नेपाल की ओर चले। वहाँ जाकर राजा से रत्नकम्बल प्राप्त करके कोशा का ध्यान धरते हुए वे मुनि शीघ्र वापिस लौटे। मार्ग में चोर मिले, उनसे महामुसीबत से दीनता करके कंबल बचाकर कोशा के पास आ पहुँचे और अति हर्षपूर्वक रत्नकंबल कोशा को दिया । वह लेकर कोशा ने तत्काल अपने पैसर पोंछे और घर के बाहर नाबदान के कीचड़ में फेंक दिया। यह देखकर साधू खेदयुक्त होकर बोला; 'हे सुन्दरी ! बड़ी मुसीबत से लाया हुआ यह रत्नकंबल तुने कीचड़ में क्यों फेंक दिया?' कोशा ने कहा, 'हे मुनि ! जब तुम जानते हो, तो गुण रत्नवाली तुम्हारी इस आत्मा को क्यों नरकरूपी कीचड़ में डाल रहे हो? तीनों भुवन में दुर्लभ महामूल्यवंत आपके संयमधर्म को इस गटर जैसी मलमूत्र से भरी हुई काया में रगड़ने को क्यों तैयार हुए हो ? और एक बार वमन किये हुए संसार के भोग दुबारा चाटने की इच्छा क्यों कर रहे हो? इत्यादि कोशा के उपदेश वाक्य सुनकर प्रतिबोधित मुनि ने वैराग्य से कोशा को कहा, 'हे पापरहित सुशील! तूने मुझे संसारसागर में गिरने से बचा लिया। तूने बहुत अच्छा किया। अब मैं अतिचार से उत्पन्न हुए दुष्कर्म रूप मैल को धोने के लिए ज्ञानरूप जल से भरे गुरु रूपी झरने का आश्रय करूंगा।' कोशा ने भी कहा, 'आप के लिए मेरा मिथ्या दुष्कृत हो : क्योंकि मैं शीलव्रत में स्थित थी फिर भी मैंने आपको कामोत्पादक क्रियाओं से खेद दिलाया है, परंतु आपको बोध करने के लिए ही मैंने आपकी आशातना की है तो क्षमा करना और हंमेशा गुरु की आज्ञा सिर पर चढ़ाना।' ऐसा सुनकर 'इच्छामी' यूं कहकर सिंहगुफावासी मुनि गुरु के पास आये । जिन शासन के चमकते हीरे • २१९
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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