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________________ ने आश्चर्य दिखाने के लिये अपना रूप परिवर्तित करके सिंह का रूप धारण किया। वे साध्वियाँ सिंह देखकर भय पाकर सरि के पास लौटी और बात बतायी। सूरि ने उपयोग से हकीकत जानकर कहा, 'तुम जाकर वंदना करो, वहाँ तुम्हारा बड़ा भाई ही है, सिंह नहीं है।' इसलिये वे साध्वी वापिस वहाँ गयी। उस समय स्थूलभद्र अपने ही स्वरूप में थे। उन्होंने वंदना की। तत्पश्चात् उनके भाई श्रीयक का स्वर्गगमन का वृत्तांत कहकर और अपने संशय को टालकर साध्वियाँ अपने स्थान पर गयी। तत्पश्चात् स्थूलभद्र वाचना लेने गुरु के पास गये। उस समय गुरु ने वाचना दी नहीं और बोले कि 'तू वाचना के अयोग्य है।' अचानक ऐसा वचन सूनकर स्थूलभद्र अपना अपराध याद करने लगे और बोले, 'हे गुरुदेव ! मैंने कोई अपराध किया लगता नहीं है, परंतु आप कहे वह सही।' गुरु बोले, 'क्या अपराध करके कबूल नहीं करता? जिससे क्या पाप शांत हो गया?' तत्पश्चात् स्थूलभद्र ने सिंह का रूप बनाकर की हुई श्रुत की आशातना का स्मरण करके गुरु के चरणकमल में गिर पडे और बोले, 'दुबारा ऐसा कार्य नहीं करूंगा, क्षमा कीजिये।' सूरि बोले, 'तू योग्य नहीं है।' स्थूलभद्र सर्व संघ के पास गये और उन्हें प्रार्थना की। गुरु के पास भेजकर गुरु को मनाने लगे क्योंकि बड़ो का कोप बड़े ही शांत कर सकते हैं।' सूरि ने संघ को कहा, 'जैसे इस स्थूलभद्र ने अभी अपना रूप बदला वैसा दूसरे भी करेंगे और अब मनुष्य मंद सत्त्ववाले होंगे।' तो भी संघ के अधिक आग्रह से स्थूलभद्र को पढ़ाने के लिये कहा तब गुरु ने ज्ञान का उपयोग किया तो जाना कि 'बाकी के पूर्व का मुझसे अभाव नहीं है तो इस स्थूलभद्र को शेष पूर्व पढ़ा दूं - ऐसा सोचकर गुरु ने 'तुझे अन्य किसी को शेष पूर्व पढ़ाने नहीं' - ऐसा अभिग्रह कराके स्थूलभद्र को सूत्र की वाचना दी जिससे वे चौदह पूर्व को धारण करनेवाले अंतिम मुनि हुए। आर्य स्थूलभद्र स्वामी! मोह के घर में रहकर जिसने मोहविजय पाया वह महर्षि । जिनकी शीलव्रती सुरभि संसार को सुगंधित करती रहेगी... जिनका नाम शील साधक आत्मा प्रातः काल परमात्मा की तरह स्मरण करेगी। ऐसे सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मचर्य के स्वामी संतपुरुष - जिनका नाम चौरासी चोरासी चौबीसी तक लोग याद करते रहेंगे। धन्य धन्य स्थूलभद्र! जिन शासन के चमकते हीरे • २२१
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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