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और गुरुवर ने विधिपूर्वक स्थूलभद्र को दीक्षा दी।
दीक्षा लेने के बाद दूसरे बारह बारह वर्ष बीत गये। मुनि स्थूलभद्र ने ऐसी प्रचण्ड साधना साध ली थी कि त्रिभुवन की कोई ताक़त उनके शीलव्रत को खण्डित करने का सामर्थ्य नहीं रखती थी। ____एक बार वर्षाऋतु आने पर भी संभूतविजयसूरि को वंदना करके तीन मुनियों ने अलगअलग अभिग्रह लिया। उसमें पहले मुनि ने कहा, 'मैं चार माह तक सिंह की गुफा के मुख पर उपवास करके कायोत्सर्ग में रहूँगा।' दूसरे मुनि ने कहा, 'मैं चार माह तक दृष्टि विष सर्प के बिल के मुख पर कायोत्सर्ग धर कर उपवासी रहूँगा।'
और तीसरे ने कहा, 'मैं चार माह तक कुएँ के बँडेर पर कायोत्सर्ग करके उपवासी रहूँगा।' उन तीनों को योग्य जानकर गुरु ने उस प्रकार चौमासा व्यतीत करने की आज्ञा दी। स्थूलभद्र मुनि ने उठकर गुरु को विज्ञप्ति की, 'मैं चार माह तक कोशा वेश्या के घर में चौमासा रहूँगा।' गुरु ने उपयोग देकर उन्हें योग्य समझकर वैसा करने की आज्ञा दी। तत्पश्चात् सर्व मुनि अपने अंगीकार किये हुए स्थान पर गये। उस समय समता गुणवाले और उग्र तप को धारण करनेवाले मुनिवरों को देखकर वह सिंह, सर्प और कुएँ का रहट घूमानेवाला - ये तीनों शांत हो गये।
- स्थूलभद्र भी कोशा के घर गये, उन्हें आते देखकर कोशा ने सोचा, 'ये स्थूलिभद्र चारित्र से उद्वेगित होकर व्रत भंग करने आये लगते हैं, इसलिये मेरा भाग्य जग रहा है। ऐसा मानकर कोशा एकदम उठकर मुनि को मोतियों से बधाकर दो हाथ जोड़कर खड़ी रही और बोली, 'पूज्य स्वामी! आपका स्वागत है । आपके आगमन से आज अंतराय कर्म क्षय होने के कारण मेरा पुण्य प्रगट हुआ है। आज मुझ पर चिंतामणि कामधेनु, कल्पवृक्ष तथा कामदेव वगैरह देवता प्रसन्न हुए - ऐसा मैं मानती हूँ। हे नाथ! प्रसन्न होकर मुझे जल्दी से आज्ञा दो। यह मेरा चित्त, वित्त, शरीर और घर सर्व आपका ही है। मेरे यौवन को प्रथम आपने ही सार्थक किया है, अब हिम से जली हुई कमलि की भाँति आपके विरह से दग्ध बने मेरे शरीर को निरंतर आपके दर्शन और स्पर्श से आनंदित करें।
यह सुनकर स्थूलभद्र बोले, 'देख, मैं मुनि बना हूँ। मुझ से दूर रहकर जो बात करनी हो वह करो। मैं तेरे यहाँ चौमासा व्यतीत करने आया हूँ। मुझे ठहरने का स्थान बता।' कोशा मन में चिढ़ गई परंतु मुनि को चलित करने के लिए कामशास्त्र अनुसार बनायी हुई चित्रशाला साफ करके चार मास तक रहने के लिये
जिन शासन के चमकते हीरे • २१६