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________________ 'बेटा! तूझे पितृहत्या का पाप नहीं लगेगा क्योंकि मैं तालपुट जहरवाली हीरे की अंगूठी चूस लूंगा। जिसके कारण मैं मृत्यु पा ही लूंगा। परंतु उसी क्षण तू तलवार चला देना मेरे सिर पर...! आत्मबलिदान के बगैर राजा का कोप शांत नहीं होगा। पुत्र! यह तुझे मेरी आज्ञा है।' पिता शकटाल ने श्रीयक को समझाया। ___लाचार श्रीयक को पिता की आज्ञा का स्वीकार करना पड़ा। और दूसरे दिन राजा को प्रणाम करते समय पिता का मस्तक श्रीयक की तलवार से उड़ चुका। सभा में हाहाकार मच गया। राजा ने जब ऐसा अपकृत्य करने का कारण पूछा तब श्रीयक ने सब बात का घटस्फोट किया।राजा को अब घोर पश्चात्ताप हुआ। राजा ने वररुचिको निकाल दिया और श्रीयक को मंत्रीमुद्रा स्वीकार करने को कहा। श्रीयक ने कहा : 'महाराज! मेरे बड़े भाई स्थूलभद्र जीवित हैं तब तक मुझ से मंत्रीमुद्रा न स्वीकारी जा सकेगी। आप स्थूलभद्र को मंत्रीमुद्रा अर्पण करो।' राजा की संमति लेकर श्रीयक स्थूलभद्र को बुलाने के लिये रूपकोशा के रूपभवन में पहुँचा। पिता के लाल खून से रंगी तलवार देखकर और श्रीयक से पिता की हत्या की घटी घटना को सुनते ही स्थूलभद्र का विषयविलास का मोह नशा चूर चूर हो गया। स्थूलभद्र श्रीयक के साथ राजसभा में पहुँचा। राजा ने स्थूलभद्र की आवाभगत की और कहा, 'स्थूलभद्र! आपके पिता का स्थान आप संभालो। इस मंत्रीमुद्रा को धारण करो।' __ स्थूलभद्र ने समीप के बगीचे में जाकर (आलोचना) विचारणा करने की आज्ञा मांग। पितृहत्या की इस अपवित्र घटना से स्थूलभद्र की भीतरी आत्मा जाग उठी।मौत का सौदागर और पापों का भण्डार जैसा संसार अब स्थूलभद्र को असार लगने लगा।रूपकोशा के प्रणयसंबंध की मीठी यादें भी उसके वैराग्य को विचलित करने में अब असमर्थ थी। स्थूलभद्र ने विचारणा करते हुए आलोचना के बदले मस्तक पर के बाल का मुण्ड कर (आलुंचन) कर डाला। धर्मलाभ की शुभाशिष बरसाते मुनि स्थूलभद्र ने राज्यसभा में प्रवेश किया। ___इस प्रकार स्थूलभद्र ने मंत्रीमुद्रा न स्वीकारी और कोशा के रूप भवन में भी न जाकर सीधे आचार्य श्री संभूतविजयजी महाराज जहाँ बिराजमान थे वहाँ पहुँचकर, उनके चरणों में गिरकर अपनी जिंदगी के चढ़ाव-उतार की समग्र हकीकत गुरुदेव को बतायी। गुरुदेव ने स्थूलभद्र में छिपे हीरे को पहचान लिया। जिन शासन के चमकते हीरे • २१५
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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