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________________ दी। वहाँ मुनि समाधि तारण करके रहे । कोशा का दिया हुआ कामदेव को प्रदीप्त करनेवाला षट्रसयुक्त आहार करके भी मुनि स्थिर मन रखकर बैठे रहे । कोशा सुन्दर वस्त्राभूषण पहनकर अनेक प्रकार के हावभाव - नखरे करती हुई मुनि को क्षोभित करने के लिये उनके पास आयी। उस समय मुनि ने कहा, 'साढे तीन हाथ दूर रहकर तुझे नृत्य वगैरह जो कुछ करना हो वह कर।' तत्पश्चात् कोशा साडे तीन हाथ दूर रहकर कटाक्ष से मुनि के सामने देखने लगी। लज्जा का त्याग करके पूर्व की हुई क्रीडा का स्मरण कराने लगी और गात्र को मोड़ने की चतुराई द्वारा त्रिदण्डी से सुन्दर ऐसा मध्य भाग दिखाती, तथा वस्त्र की गांठ बांधने हेतु गंभीर नाभिरूप कूप को प्रकट करती कोशा उनके सम्मुख विश्व को मोहित करनेवाला नाटक करने लगी; फिर भी स्थूलभद्र ने उठाकर उसके सामने देखा भी नहीं और जरा सा भी क्षोभ पाया नहीं। . तत्पश्चात् कोशा अपने सखियों को लेकर वहाँ आयी। उनमें से एक निपुण सखी बोली, 'हे पूज्य! कठोरता का त्याग करके उत्तर दीजिये। क्योंकि मुनियों का मन हमेशा करुणा के कारण कोमल होता है। भाग्यहीन पुरुष ही प्राप्त हुए भोग को गंवाते हैं, सो हे पापरहित मुनि! आपके वियोग से कृश बनी और आपके ही लिये मरने को तैयार बैठी आपकी कामातुर प्रिया के मनोरथ को सफल करो। यह तपस्या तो सुख से दुबारा प्राप्त होगी, परंतु ऐसी प्रेमी युवती मिलेगी नहीं।' यह सुनकर मुनि ने कोशा को कहा, 'अनंत बार अनेक भव में कामक्रीडादि किये हैं तो भी अब क्यों उसकी ही इच्छा करती है? क्या अब भी तुझे तृप्ति नहीं हुई - जो मेरे सम्मुख यह नृत्यादि का प्रयत्न करती है? यदि शायद ऐसा ही नृत्य प्रशस्त भाव से परमात्मा की स्तुतिपूर्वक उनके समीप किया होता तो सर्व सफल हो जाता : परंतु तूं तो भोग की इच्छा से दीनवाणी बोलती है और सखियों को लाकर भोगप्राप्ति के लिये प्रयत्न कर रही है, परंतु तू क्यों यह जन्म तथा जीवन वृथा गँवा रही है । हे बुद्धिशाली कोशा! तू सर्व प्रयल अपनी आत्मा के हित के लिये ही कर। इस प्रकार के स्थूलभद्र मुनि के वचन सुनकर कोशा ने सोचा, इस मुनि का जितेन्द्रियपन मेरे जैसी असंख्य चतुर नारियों से भी जीता जा सके ऐसा नहीं है।' वह बोली, 'हे मुनिराज ! मैंने अज्ञानतावश आपके साथ पूर्व की हुई क्रीडा के लोभ से आज भी क्रीडा की इच्छा से आपको क्षोभित करने के अनेक उपाय किये हैं। अब तो मेरा अपराध क्षमा करें।' बाद में मुनि ने उसको योग्य जानकर श्रावक धर्म जिन शासन के चमकते हीरे • २१७
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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